पुराने जमाने में गर्भ की जांच दाइयों द्वारा गर्भवती स्त्री
के पेट पर हाथ से दबा कर की जाती थी। अनुभवी दाइयां गर्भवती
स्त्री के चलने, उठने, बैठने मात्र से अंदाजा लगाकर गर्भस्थ
शिशु की स्थिति भांप जाती थी, यही नहीं,
कुछ लक्षणों के आधार पर गर्भ में पल रहे शिशु का लिंग भी बता देती थी।
यदि दाई गर्भ में पल रहे शिशु का लिंग, पुल्लिंग बताती तो
गर्भवती स्त्री
के परिजन उसे मिठाइयां व उपहार देते तथा
गर्भवती स्त्री की गर्भकाल में पूर्ण देखभाल करते और यदि वो
लड़की होने की ''आशंका'' जता देती तो बेचारी गर्भवती स्त्री को
गर्भकाल के दौरान ही प्रताड़ना देना शुरू कर दी जाती थी तथा
गर्भस्थ शिशु के लिंग बदलने की
कुचेष्टा से 'शर्तिया लड़का
होने की 'दवा' दी जाती। इस धरती पर जन्म वही लेता है, जिसे
परमात्मा ने निश्चित किया हुआ है, लेकिन उस शर्तिया दवा का
कुप्रभाव अवश्य हो जाता है। पैदा हुई कन्या के बड़े होने
पर मर्दों की भांति चेहरे व शरीर पर अनचाहे बाल उग आते हैं।
लड़कियों की कोमल आवाज के स्थान पर लड़कों जैसी
कर्कश
आव़ाज गले से निकलती है।
धीरे-धीरे समय बदला, एलौपेथिक चिकित्सा पद्धति ने चिकित्सा -विज्ञान
में अनेक उपलब्धिया हासिल की। इसमें गर्भ में पल रहे शिशु के स्वास्थ्य के साथ-साथ लिंग परीक्षण की तकनीक भी विकसित हुई।
गर्भ परीक्षण का
मुख्य उद्देश्य गर्भ में उत्पन्न किसी भी
आनुवंशिक त्रुटि का पता लगाना होता है, ताकि विकलांग शिशु की
जन्मदर को नियंत्रित किया जा सके। गर्भ परीक्षण के दौरान
गर्भस्थ शिशु के लिंग का पता चलने की वजह से यह परीक्षण गर्भ
परीक्षण कम और लिंग परीक्षण अधिक हो गया। प्रारंभ में लिंग
परीक्षण की विधियां अत्यंत
कष्टप्रद व हानिकारक होने के
अतिरिक्त लिंग आकलन का अनुमान भी सही नहीं होता था।
सन् 1974 में गर्भजल परीक्षण की तकनीक का भारत में
चलन शुरू हुआ। यह तकनीक भी आनुवंशिक त्रुटि का पता लगाने के उद्देश्य से ही विकसित हुई थी। इस तकनीक में गर्भ के बारहवें
सप्ताह में गर्भास्य से एक सुई द्वारा पानी लिया जाता है जिसे
गर्भ जल कहते हैं। इस गर्भ जल में भ्रूण की कोशिकाएं भी पाई
जाती हैं। इस गर्भजल से कोशिकाओं को अलग कर
फ्लोरेसेंट
सूक्ष्मदर्शी के द्वारा जांचा जाता है, या चार-पांच सप्ताह
तक एक विशेष विधि से रखकर इन्हें बढ़ने दिया जाता है, फिर इनकी
जांच की जाती है। देखने सुनने में यह तकनीक सुरक्षित लगती है
लेकिन इस परीक्षण के दौरान खून का बहाव होने लगता है। कई बार
तो स्वतः ही गर्भपात भी हो जाता है। सुई से
संक्रमण का खतरा
बना रहता है। गर्भजल में भ्रूण के साथ-साथ मां की कोशिकाओं
के मौजूद रहने के कारण यह पूर्णतया विश्वसनीय तकनीक सिद्ध
नहीं हो पाई।
इसके बाद कोरियान विलाई वायोप्सी विधि का विकास हुआ। यह
गर्भजल परीक्षण से कम पीड़ादायक व अधिक विश्वसनीय सिद्ध हुआ।
इस विधि में गर्भ के छठे से तेहरवें सप्ताह के बीच भ्रूण
के आसपास के
उत्तक लंबी कोशिकाओं को अलग कर जांच की जाती
है। इस परीक्षण से कई महत्वपूर्ण आनुवंशिक दोषों का पता लगाया
जा सकता है, लेकिन इस विधि से भी गर्भवती महिला को रक्त स्त्राव व स्वतः गर्भपात का खतरा बना रहता है। कई बार तो
महिलाएं बांझ भी हो जाती थी या गर्भास्य कमजोर पड़ने से भविष्य
में गर्भधारण की संभावनाएं कम हो जाती थी।
इसके बाद ऐमानियोटेसिस मशीन का चलन हुआ। यह कम खर्चीली व कम
कष्टप्रद होने के कारण काफी लोकप्रिय हुई, लेकिन इस मशीन
के बाद भ्रूण के लिंग निर्धारण के लिए सस्ती, अधिक
विश्वसनीय व कम कष्टदायी मशीन का आगमन हुआ जिसे हम सब
अल्ट्रासाउंड के नाम से जानते हैं। इसके आने के बाद समाज
का एक अमानवीय चेहरा उभरकर सामने आया। पुत्रेच्छा के चलते
अल्ट्रासाउंड मशीन संचालकों के
क्लीनिकों के बाहर लंबी कतारें
लगने लगी। फिर शुरू हुआ कन्या भ्रूण हत्याओं का नृशंस दौर,
जो आज भी जारी है।
विज्ञान के विकराल
रूप ने नारी को संसार के सबसे
सुरक्षित स्थान पर भी सुरक्षित नहीं रहने दिया। जन्म से पूर्व
मां की कोख बच्चे के लिए सबसे सुरक्षित स्थान होती है। मां
की कोख सदैव अभेदनीय व अति गोपनीय मानी जाती थी लेकिन विज्ञान
ने मां की ममता के इस अभेदनीय किले को भेद दिया और
अल्ट्रासाउंड जैसी मशीन ने इसकी गोपनीयता को समाप्त कर इसे
सार्वजनिक कर दिया।
दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और महाराष्ट्र में जेंटर-मेंटर किट का
व्यवसाय आजकल जोरों पर है। देहात में जन्तर-मंतर किट के नाम
से मशहूर यह किट
25 अमरीकी डॉलर में
उपलब्ध है। यह किट
गर्भाधान के पांच सप्ताह के भीतर खून की जांच से बता देता
है कि गर्भ में पलने वाला शिशु लडक़ा है या लडक़ी। खून की इस
जांच को व्यावसायिक भाषा में बेबी जेंडर-मेन्टर कहा जाता है।
खून का सैंपल लेने के बाद इसे अमरीका स्थित
मुख्य लैब में भेजा
जाता है। इसके बाद रिपोर्ट जानने के लिए ग्राहक को
250 डॉलर और देना होता है। जैसे ही
250 डॉलर कंपनी को अदा किये
जाते हैं
24 घंटे के अंदर रिपोर्ट वेबपेज पर डाल दी जाती
है जिसे ग्राहक एक पासवर्ड के जरिए खोल सकता है।
इस व्यवसाय में कई भारतीय
डॉक्टर व लैबोरेट्ररी संचालक संलिप्त
हैं, लेकिन यह व्यवसाय इतना
फुल-प्रुफ है कि इसे रोकना थोड़ा
मुश्किल है। पहली बात, यह देश के कानून की सरहदों से दूर है।
दूसरे, यह टेस्ट नॉन मेडिकल टेस्ट की श्रेणी में आता है इसलिए
भी इसे कानूनी
रुप से रोक पाना कठिन है। पंजाब और हरियाणा
में यह उद्योग का
रुप लेता जा रहा है। यदि भारत सरकार ने समय
रहते इस पर लगाम न कसी तो इसके नतीजे भयावह हो सकते हैं।
नारी उत्पीड़न से दुःखी व पुत्रेच्छा की लालसा में मां, कोख
में बेटी का पता चलते ही दुःखी व परेशान हो उठती है और शीघ्र
ही बेटी को अबला-सबला न मानकर बला मानने वाली मां कोख में ही
नन्ही जान को मृत्यु दंड़ सुना देती है, या फिर उसके कत्ल
के लिए अपनी मूक सहमति जता देती है। इस मृत्युदंड़ को, इस
कत्ल को बड़ी सफाई से सफाई का नाम देकर
डॉक्टर के रूप में
कसाई द्वारा सफाई करवा दी जाती है।