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आज वर्तमान समय में नारी पर हो रहे अत्याचारों से नारी को मुक्त
करने, उन्हें आजाद करने पर विशेष चर्चाएं होती रहती है। सरकार ने
भी इस दिशा में कई कारगर कदम उठाएं है। नारी मुक्ति के लिए हम और
आप सभी प्रयासरत हैं।आज की नारी किन्हीं बेडि़यों में बंधी हुई नहीं
है, जिन्हें हम और आप मिलकर मुक्त करवा दें। सामाजिक परम्पराओं की
अदृश्य बेडि़यों ने नारी को जकड़ रखा है। आडम्बरी समाज द्वारा बनाई
परम्पराओं में परिवर्तन लाना ही नारी मुक्ति की ओर सशक्त कदम होगा।
नारी संकीर्ण वैचारिक जेल में कैद है, विचारों में परिवर्तन ऊंची और
खुली सोच ही इस कैद को तोड़ सकती है।
हमारा देश सैंकड़ों वर्ष तक गुलाम रहा। गुलामी के दौरान जुल्म
सहते-सहते अनेकों समझौते करने पड़े, अपनी
संस्कृति को भी हम
भुलाते गए। नारी का सदैव
सम्मान करने वाली भारतीय
संस्कृति को भी
ग्रहण लगता गया। मुगल साम्राज्य के दौरान सुंदर महिलाओं की
अस्मित लूट ली जाती थी, जिसके भय से पर्दा प्रथा का पर्दापण हुआ।
फिर अंग्रेजों का राज हुआ, जिसमें अंगे्रज महिलाओं द्वारा तत्कालीन
भारतीय समाज के नियमों के उल्ट कम वस्त्र पहने जाते थे।
गुलामियत सहने की आदत-सी पड़ चुकी है, भारतीयों को।
आजादी के 61 वर्ष जीने के बावजूद पश्चिमी सोच हम पर हावी रही
है। पश्चिमी देशों में स्त्रियों द्वारा शरीर का खुला प्रदर्शन,
बात-बात पर तलाक ले दूसरी-तीसरी-चौथी शादी करना, बगैर शादी किये
पुरुष मित्र के साथ रहना आदि को ही
कुछ तथाकथित लोगों ने
आजादी मान लिया है। तभी वे लिव-इन रिलेशन की वकालत भारत में भी करते
हैं। ऐसी सोच वाले
व्यक्तियों को ज्ञात होना चाहिए कि गंदगी जल से
साफ होती है, मल से नहीं।
भारत में अनादिकाल से ही नारी
को सम्मान का हकदार माना गया है,
लेकिन पश्चिमी
सभ्यता की पौराणिक दंत कथानुसार आदम और हव्वा में
केवल पुरुष को ही प्राणवान माना गया है, तथा स्त्री का निर्माण
पुरुष की पसली से हुआ अतः उसमें प्राण नहीं माना गया। इसी प्रकार
पशु-पक्षी, जलचर आदि को भी प्राणहीन मान उन्हें गुलाम बनाना, मारना
या उससे कैसा भी निर्मम कांड करना धर्म संगत माना गया है, लेकिन
आगे चलकर अनेक दार्शनिकों ने इसका घोर विरोध कर स्त्री को प्राणवान
माना। धीरे-धीरे अन्य जीव-जंतुओं में भी प्राण होने पर सहमत हुए।
जब कि हिन्दुस्तान में अनादिकाल से ही स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी,
जलचर यहां तक की पेड़-पौधे, वनस्पति तक में भी जीवन माना गया है।
भारत में अधिकांश लोगों का मानना है कि नारी को पश्चिमी देशों में
भारत से अधिक आजादी है। हां , यह
कुछ हद तक सही भी हैं। वहां की
नारी भारतीय नारी से अधिक आजाद हैं, अपने अंग दिखाने में, अपने पति
को शीघ्र बदलने में, विवाह पूर्व व
विवाहोत्तर अनैतिक संबंध बनाने
में स्वतंत्र हैं, लेकिन पूरे विश्व में मान-सम्मान भारतीय नारी का
ही अधिक होता है। तभी तो भारत के
62 वर्ष के लोकतांत्रिक
कार्यकाल केञ्
19 वें वर्ष में एक महिला ने प्रधानमंत्री पद (श्रीमती
इंदिरा गांधी, दिनांक
24 फरवरी 1966) व 61 वें वर्ष में एक
अन्य महिला ने
राष्ट्रपति पद (महामहिम प्रतिभा देवीसिंह पाटिल
दिनांक 25 जुलाई
2007) जैसे सर्वोच्च स्थान प्राप्त किये।
जबकि अमेरिका के
200 वर्ष से अधिक के लोकतांत्रिक काल में अब तक
कोई भी महिला
राष्ट्रपति नहीं बन सकी। स्वतंत्र भारत के प्रथम मंत्री मंडल में भारत की प्रथम स्वास्थ्य मंत्री होने का
गौरव भी एक महिला (राजकुमारी अमृत कौर) को ही मिला।
पश्चिम में स्वतंत्र-सी दिखने वाली नारी असल में स्वतंत्र नहीं है।
पैसे के लालची पश्चिमी औरत की देह का वैश्वीकरण हो चुका है। भारत
में एक विशेष 'प्रजाति' के लोग हैं, जिनका मानना है कि पश्चिमी
देशों में जो हो रहा है, ठीक वैसा ही अगर हमारे देश में होगा तभी
हम विकसित कहलाएंगे अन्यथा भौतिकतावादी संसार में पिछड़ कर रह
जाएंगे। इसका प्रभाव भारत की
कुछ प्रतिशत जनता पर देखा जा सकता
है। मानव की संवेदना से जुड़ी भारतीय
संस्कृति पर पश्चिमवादी
इलैक्ट्रोनिक
मीडिया द्वारा आश्चर्यजनक
रूपसे बाजार व विज्ञापन की
संस्कृति
का वर्चस्व स्थापित हो गया है।
उपभोक्तावादी बहुराष्ट्रीयन कंपनियों सहित भारतीय
कंपनियों ने भी स्त्री को बाजार और
विज्ञापन के माध्यम से देह के
रूप में प्रस्तुत किया है।
भूमण्डलीकरण के दौर में जब सब
कुछ बाजार में बदल गया है,तो ऐसे
दौर में शोषण के तरीके बहुत संगीन व महीन हो गए हैं। जिसे समझ
पाना बहुत कठिन हो गया है। पैसे व ग्लैमर की चकाचौंध में औरतें
स्वयं उसका शिकार हो रही है। स्वेच्छा से इनका वरण कर
उपभोक्तावादी बाजार ने
रूप सौंदर्य देह के
रूप में नारी को काफी समय से
परिभाषित किया जाता रहा है, के चलते ............ लेकिन आधुनिक
युग में देह प्रदर्शित करती नारी कब वस्तु
में तब्दील हो गई, शायद
नारी को भी इसका आभास नहीं।
क्या औरत का, बदन से ज्यादा वतन नहीं? औरत के बदन से जन्म लेने
वाला इंसान, औरत के बदन को ही अपनी रोजी (व्यापार) का साधन बना
रहा है। विज्ञापन युग में औरत को तुच्छ समझने वाला
पुरुष उसके देह के प्रदर्शन के बिना टी.वी.,
फ्रीज, साबुन, कपड़े, कार
तो क्या स्वयं पुरुष के पहनने वाले अंडरवियर तक नहीं बेच पा रहा
है। उपभोक्तावादी कंपनियां पुरुष प्रवृति को भांपते हुए नारी
देह के आकर्षक के जरिये धन जुटाने में जुटी हैं।
औरत की अपनी इच्छा भी इस व्यवस्था में रची बसी हुई लगती है।
वैश्वीकरण व बाजारवाद के चलते स्त्रियां वस्तु बनती जा रही है।
सच तो यह है कि नारी को सदैव वस्तु ही समझा जाता है, हाड़-मांस की
सजीव एवं सुंदर वस्तु। ज्ञात ही होगा, कि पूर्व में राजा-महाराजा
सुंदर स्त्रियों को विष कन्या बनाकर दूसरे राज्य में भेज कर राजाओं
की हत्याएं करवाते थे। इतना ही नहीं देवता भी अप्सराओं का प्रयोग
विश्वामित्र जैसे
ऋषियों की तपस्या भंग करवाने हेतु सुंदर हथियार
के रूप में करते थे। अपने फर्ज के लिए सुसाईड वुमैन बनी इन
स्त्रियों को किसी भी युग में शहीद का दर्जा नहीं मिला,
क्यों...? क्योकि नारी को
केवल सुंदर हथियार समझा जाता रहा है? हथियार कभी शहीद नहीं
होते, हथियार का
केवल प्रयोग होता है।
पुरुष स्त्री को कितना
भी दोयम समझें या उसे वस्तु समझें, लेकिन नारी के देह के आकर्षण से कभी बाहर नहीं हो पाया।
पुरुष की इसी कमजोरी का
बाजारवाद सहित सिनेमा जगत ने भी खूब फायदा उठाया। नारी देह का
प्रदर्शन कर लाखों करोड़ों कमाएं।
कुछ दशक पूर्व की फिल्मों में अभिनेत्रियों के बदन पर पूरे
वस्त्र होते थे।
केवल गर्दन का ऊपरी हिस्सा ही देखने को मिलता
था। पूरी फिल्म के एकाध दृश्य ही थोड़े कम वस्त्र पहने
सहअभिनेत्री पर दर्शाएं जाते थे। हीरो-हीरोइन के प्रेम दृश्य में
यदि चुम्बन दृश्य दर्शाना आवश्यक हो तो दो
फूलों का आपस में
टकराना दिखाया जाता था। जिसे देख भारतीय दर्शक रोमांचित हो उठते
थे, लेकिन आज की फिल्मों
में चुम्बन दृश्य को आम बात हो गई है। साढ़े
पांच-छह फुट लंबी अभिनेत्री के बदन पर मात्र
कुछ इंच के
ही वस्त्र होते हैं। दो कदम आगे बढ़ने की होड़ में बलात्कार के दृश्य किसी सी-ग्रेड फिल्म के दृश्य से कम नहीं होते तथा आइटम
सांग के नाम पर अभिनेत्री द्वारा इंचों के हिसाब से डाले
वस्त्रों में से भी
कैमरा झांक जाता है। पिछले दशक खलनायक फिल्म
में संजय दा-माधुरी दीक्षित पर दर्शाया गीत 'चोली केञ् पीछे
क्या
है' ने हंगामा-सा मचा दिया था, लेकिन
21 सदीं के प्रथम दशक में
तो अभिनेत्री करीना कपूर द्वारा फिल्म में 'टच-मी, टच-मी....
जरा-जरा टच मी, टच-मी' गीत के फिल्मांकन ने नारी देह को एक
प्रदर्शित वस्तु के साथ-साथ उपभोग की वस्तु भी बनाकर रख दिया। धन
पिपासु अभिनेत्रियों ने
पुरुष की नारी देह के प्रति आकर्षण को
धन से तोलना आरंभ कर देह का खुला प्रदर्शन शुरू कर दिया।
पुरुष की नारी देह के प्रति दिवानगी को भांपते हुए फिल्म
निर्माताओं द्वारा धन पिपासु अभिनेत्रियों से देह का खुला प्रदर्शन
करवाना शुरू कर दिया
है। क्या औरत का, बदन से ज्यादा वतन नहीं?
अभिनय के दम पर वर्षों की मेहनत से जो मुकाम एक अभिनेत्री बनाती
है, उसे देह प्रदर्शन के शॉर्टकट से
कुछ अभिनेत्रियां
कुछ ही
समय में प्राप्त कर लेती हैं, भले ही वह सफलता अस्थाई व अल्पकालीक
ही क्यों न हो।
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