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     गरीब कन्याओं की शादियाँ ही क्यों..?

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        आज समाज में अनेक सामाजिक संगठन हैं जो अपने अपने तरीके से समाज सेवा कर रहे हैं। कोई मैडिकल चैकअप कैंप लगाता है, तो कोई प्रदूषण, एड्स, नशामुक्ति पर कार्य कर रहा है, तो कोई प्याऊ बनवाकर राहगीरों की प्यास बुझाता है। लेकिन कुछ संस्थाएं गरीब लड़कियों की शादियाँ करवाने पर विशेष बल देती हैं। उन समाजसेवकों का कहना है कि गरीब व्यक्ति अपनी बेटी की शादी नहीं कर सकता। हम सब मिलकर चंदा इकट्ठा कर गरीब लड़की की शादी करवाते हैं। यह बहुत बड़ा पुण्य का काम है। ऐसी संस्थाएं गरीब कन्याओं की शादियाँ कर वाहवाही लूटने के लिए खूब ढिंढोरा भी पीटती हैं।

प्रारंभ से ही मेरी सामाजिक कार्यों में रूचि रही है तथा मैने भी अपने साथियों के साथ मिलकर इस प्रकार के पुण्य के कार्य किए हैं। मेरा व मेरे साथियों का नजरिया गरीब लड़कियों की शादी करवाकर ढिढोंरा पीटना नहीं होता था और न ही हम किसी संस्था के बैनर (नाम) का प्रयोग करते थे, जिस बैनर तले हम चंदा इकट्ठा कर धूमधाम से शादियाँ करवाते। हम उस लड़की के दहेज के लिए मुहल्ले के लोगों का सहयोग लेते तथा अपनी पॉकेट मनी व अपने घर के सदस्यों को विश्वास में लेकर उनसे नकद व सामान प्राप्त करते तथा मुहल्ले के कुछ घरों से कपड़ा-बर्तन वगैरा इकट्ठा करवा दहेज तैयार करते तथा मुहल्ले की औरतों से प्रार्थना कर बारातियों के लिए खाना बनवाते। डीजे के स्थान पर घरेलू स्टीरियो डैक से संगीत का आनंद दिलवाते। कम खर्च व सबके सहयोग से बड़े ही सौहार्दपूर्ण माहौल में लड़की की शादी करवा दी जाती थी। हमने कभी भी इन शादियों का ढिंढोरा मीडिया के माध्यम से नहीं पीटा। शायद हम भी मीडिया में अपनी फोटो छपवाने की इच्छा रखते हुए प्रयास करते, लेकिन एक महान लेखिका (वर्तमान में पंजाब की स्वास्थ्य मंत्री) श्रीमती लक्ष्मीकांत चावला ने एक राष्ट्रीय समाचार पत्र में अपने नियमित प्रकाशित एक लेख में इन शादियों के बारे में बड़े ही स्टीक व स्पष्ट शब्दों में लिखा कि गरीब की बेटी इतनी गरीब नहीं होती, जितना ये संस्था वाले गरीब कन्या की शादी करवाने के नाम पर मीडिया में फोटो प्रकाशित करवाकर पूरे जग में गरीब को ओर गरीब बना देते हैं। इतना ही नहीं भविष्य में जब कभी भी, कोई अन्य सामाजिक कार्य करते हैं, तब पूर्व में किए सामाजिक कार्यों में उस गरीब कन्या की शादी का जिक्र अवश्य करते हैं। श्रीमती चावला ने आगे लिखा कि इस प्रकार की शादियों में खाना खाने वाले इतने बाराती शामिल नहीं होते, जितने कि इस कार्यकम को अंजाम देने वाली संस्था के सदस्य खाना खा रहे होते हैं।

कुछ वर्ष पूर्व जींद की आर्य युवा संगठन व डीएवी स्कूल संस्था ने 125 गरीब कन्याओं की शादी का आयोजन किया था। इस आयोजन को सफल बनाने केञ् लिए शहर की अनेक संस्थाओं एवं जनसाधारण से सहयोग मांगा गया। जिसके लिए बहुतों ने दिल-खोलकर तन-मन-धन से सहयोग भी किया। मेरा बेटा व बेटी भी डीएवी स्कूल के छात्र हैं। उन दिनों मेरा बेटा मृत्युंज्य चौथी कक्षा का छात्र था उस ने मासूमियत से पूछा, पापा क्या ये शादियाँ केवल लड़कियों की होंगी, लड़कों की नहीं। उसकी बात सुन मुझे हंसी आ गई और मैंने कहा, बेटा शादी तो लड़का-लड़की दोनों की ही होती है। जिज्ञासु प्रवृति के कारण वह सवाल पर सवाल पूछता रहा। उसने कहा, नहीं पापा हमारी मैडम बता रही थी लड़कियों की ही शादियाँ होंगी। मैंनें उसे समझाया, बेटा तुम्हारे स्कूल की संस्था उन लड़कियों की शादियाँ करवा रही हैं, जो गरीब हैं। उनके मां-बाप उनकी शादियों का खर्च उठा नहीं सकते। इसलिए तुम्हारी मैडम ने कहा है कि गरीब लड़कियों की शादियाँ करवाई जाएंगी। बेटा बोला, अब समझा लड़की वाले गरीब होंगे तो उनकी शादी का खर्च हमारा स्कूल देगा और लड़के वाले अमीर होंगे वो अपना खर्च खुद करेंगे।

बेटे की बातें मुझे अंदर तक छू गई। मैंने जैसे-तैसे बेटे की जिज्ञासा को उसके द्वारा किए गए प्रश्नों का जबाव देकर शांत किया लेकिन मासूम के द्वारा किए गए प्रश्नों से मेरे मन में एक प्रश्न उठा कि आखिर कन्याओं की ही शादियां क्यों करवाती हैं ये संस्थाएं। गरीब लड़कों की शादियां क्यों नहीं करवाते। अपनी होने वाली पत्नी के परिजनों को हाथ फैलाकर शादी खर्च के लिए चंदा मांगने पर मजबूर करने वाला लड़का अमीर कदापि नहीं हो सकता, ना ही आर्थिक तौर पर और न ही मानसिक तौर पर।

इस प्रकार गरीब कन्याओं की शादियां करवाने से उन कन्याओं के दिल में हीन भावना बैठ जाती है। उनके पति सदैव उन्हें ताना देते रहते हैं कि तेरा बाप तेरी शादी भी नहीं कर पाया, चंदा इकट्ठा कर संस्था वालों ने की है तेरी शादी। इस प्रकार के तानों से लड़की के दिल पर क्या बीतती होगी, इसका अंदाजा सहजता से लगाया जा सकता है। यद्यपि लज्जित तो पुरुष को होना चाहिए। यदि वह लड़की के परिजनों को बिना दान-दहेज के शादी करने को कहता, संभवतयः वधू पक्ष को यूं किसी व्यक्ति विशेष या संस्था के आगे झोली ना फैलानी पड़ती।

उल्लेखनीय है कि इस प्रकार सामुहिक विवाह समारोह करवाने वाली संस्थाएँ मिडिया की सुर्खियाँ बटोरने तथा रिकार्ड बनाने हेतू अधिक से अधिक संチया में शादियाँ करवाने का प्रयास करती हैं। इस प्रकार के विवाह समारोहों करवाने वालों में अधिकांश जोड़े पहले से ही शादीशुदा होते हैं। दान दहेज के रूप में मिलने वाली राशि के लोभवश पुनः विवाह बंधन में बंधने की नौटंकी करते हैं। ऐसा नहीं है कि इसकी जानकारी संस्था संचालकों को न हो लेकिन वे मीडिया में प्रैस विज्ञप्तियां जारी कर व बैनर-पोस्टरों द्वारा विज्ञापित कर चुके होते हैं कि वे रिकार्ड तोड़ एक सौ-पांच सौ शादियाँ करवा रहे हैं तथा इसी आधार पर समाज से चंदा वसुली भी कर चुके होते हैं।
 
चंदा इकट्ठा कर या किसी व्यक्ति के विशेष सहयोग से इस प्रकार की शादियों से आयोजकों को मीडिया की सुर्खियां व चंद लोगों की वाहवाही मिलती है, जबकि महिलाओं के दिलों से केवल आह निकलती है। उन्हें लड़की होने का दुःख होता है। वे खून के आंसू रोती हैं कि हमारी शादी के लिए हमारे परिजनों को इस प्रकार लज्जित होना पड़ा। शादी की जरुरत तो लड़का-लड़की दोनों को होती है और वह सोचने पर मजबूर हो जाती है कि लड़के, लड़कियों से ज्यादा भाग्यशाली होते हैं और मन ही मन प्रार्थना करती हैं कि हे परमात्मा उनकी कोख से बेटी ना जने। इस दुःख का, इस विचार का प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है। माँ ही नहीं चाहती कि उनकी कोख से बेटी जन्म ले। आखिर समाज में कन्या भ्रूण हत्या कैञ्से समाप्त होगी। समाप्त तो केवल सोच बदलने से होगी। यदि किसी भी बात या चीज को बोझ समझा जाएगा, तो हम उस बोझ से शीघ्र-अतिशीध्र मुक्त होना चाहेंगे। कन्याओं की इस प्रकार चंदा एकत्र कर शादियां करना यह दर्शाता है कि बेटियों की शादियाँ करना माँ-बाप के लिए बोझ है। यही बोझ समझने वाली सोच कन्या भ्रूण हत्या को बढ़ावा देती हैं। संस्था वालों को चाहिए कि वे गरीब कन्याओं की शादी के इस प्रकार के विज्ञापन के स्थान पर गरीब लड़के की शादी का विज्ञापन करें (शायद लड़का वर होने के अहंकार वंश इस पर सहमत न हो) अन्यथा गरीब लड़का-लड़की की शादी का विज्ञापन कर शादियाँ करवाएँ, ताकि लड़का-लड़की दोनों में समानता बनी रहे।

अहंकार वर होने का :- एक बार एक गरीब परिवार लॉयन्स क्लब के सदस्यों के पास आया और कहने लगा कि आपकी संस्था (लॉयन्स क्लब) गरीबों की सहायता के लिए कई प्रकार के कैंप लगाती है। हम बहुत गरीब हैं। बेटी की शादी का खर्च सहन नहीं कर सकते। आप हमारी बेटी की शादी करवा दें। सदस्यों ने उस दंपति से पूछा कि इस प्रकार संस्था द्वारा शादी करवाने पर वर पक्ष को ऐतराज तो नहीं होगा, तो उन्होंने बताया कि वर पक्ष को कोई ऐतराज नहीं है। बल्कि लड़के की बहन की शादी भी इसी प्रकार हुई थी। सभी सदस्यों की सहमति से तय हुआ कि इस नेक कार्य को इस प्रकार किया जाए कि कार्य संपन्न भी हो तथा समाज को नई सोच भी मिले। सदस्यों ने लड़की वालों से वर पक्ष का पूरा पता ले लिया। वर पक्ष नजदीक के गांव के ही रहने वाले थे। तीन चार सदस्य लड़के वालों के घर पहुँचे। अपना परिचय दे बातचीत शुरू की। सदस्यों ने उनके आगे प्रस्ताव रखा कि हम इस शादी का खर्च देने को राजी हैं लेकिन इस शादी का प्रचार गरीब कन्या की शादी न होकर, गरीब लड़के की शादी करवाना होगा। इतना सुनते ही लड़के वाले भड़क उठे। बोले, कभी ऐसा भी हुआ है, हम लड़के वाले हैं। आप हमारी बेइज्जती कर रहे हैं। गरीब तो लड़की वाले हैं। उन्हे जरुरत है हमें नहीं। धीरे-धीरे लड़के वालों के शब्द कठोर व ध्वनि ऊँची होने लगी। जैसे-तैसे उन्हें शांत करके समझाया कि शादी तो लड़का-लड़की दोनों की ही होनी है। जिसको आप ब्याहकर लाएंगे वो भी तो आपकी बहु ही होगी। फिर बहु के नाम की चर्चा हो या बेटे के नाम पर बात तो एक ही है। लॉयन लीडर्ज ने उन्हें कई तरीकों से समझाने का प्रयास किया लेकिन उन्होंने वर पक्ष होने का अहंकार नहीं त्यागा। जबकि इन्ही वर पक्ष वालों ने कुछ समय पूर्व ही अपनी पुत्री (वर की बहन) की शादी किसी अन्य संस्था के सहयोग से की थी। उनके प्रयास से एक फायदा तो अवश्य हुआ कि लड़के वालों ने बिना दहेज के शादी करने पर अपनी सहमति जताई व तय समय पर बिना किसी दिखावे व आडम्बर के शादी कर ली।
 

 


 

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