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    दहेज दानव नहीं अधिकार है बेटी का

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              दहेज की प्रथा आदिकाल से चली आ रही है। माँ-बाप-भाई द्वारा अपनी बेटी-बहन की शादी पर दिए गए उपहारों को दहेज कहा गया है। यह प्रथा युगों-युगों से चली आ रही है। युगो से चली आ रही प्रथा को हमारा समाज स्वीकार भी कर रहा है। विरोध करने वाले भी इस प्रथा को कहीं ना कहीं, छोटा या बड़ा सहयोग अवश्य ही दे रहे हैं।

पूर्व में लड़कियों का कार्यक्षेत्र केवल घर की दहलीज तक ही सीमित होता था जबकि पुरुष ही कमाई करके लाते थे। घर खर्च चलाने की जिミमेवारी पुरुष की ही होती थी, जबकि घर चलाने की जिम्मेवारी महिला की होती थी। पुरुष जो भी कमा कर लाते स्त्रियां उसी से घर चलाती थी। एक व्यक्ति की कमाई से दस व्यक्ति खाते थे। आर्थिक दृष्टि से भी समाज पिछड़ा हुआ था तथा छोटी आयु में ही लड़का-लड़की की शादी कर दी जाती थी। शादी के समय लड़का आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर नहीं होता था अर्थात लड़का अपने बाप की कमाई से ही स्वयं का और अपनी पत्नी का पेट पालता था।

ऐसे में लड़की के माँ-बाप अपनी पुत्री के सुखमय भविष्य के लिए गृहस्थी में प्रयोग होने वाली वस्तुओं के अतिरिक्त गहने व नकद भेंट करते थे ताकि वर पक्ष के परिवार को एक सदस्य के बढ़ जाने से खर्च का बोझ महसूस न हो। भेंट देने का यह कर्म ता-उम्र तीज त्यौहार आदि के रूप में चलता रहता था।

इसके अलावा दहेज प्रथा शुरू करने के पीछे लड़की को उसके बाप की जायदाद का कुछ भाग देना भी उद्देश्य रहा होगा। शादी के बाद लड़की अपनी ससुराल चली जाती है, शादी के फौरन बाद लड़की अपने पिता के परिवार का सदस्य न रहकर अपने पति के परिवार का सदस्य बन जाती है। शादी के समय जायदाद के हिस्से करना संभव नहीं हो सकता, इसलिए पिता की जायदाद के हिस्से के तौर पर मिलने वाले उपहार-जोकि गहने, वस्त्र, नकदी व अन्य किसी भी रूप में हो सकते हैं को दहेज का नाम दिया गया होगा।

हमारे बुजुर्गों ने सदियों पूर्व दहेज की प्रथा कुछ इस तरह बेटा-बेटी में जायदाद के बंटवारे में समानता लाने, बेटी की ससुराल में आर्थिक सहायता करने इत्यादि के उद्देश्य से शुरू की होगी, लेकिन नेक इरादों से शुरू की गई इस प्रथा का दुरुपयोग होने लगा। लड़की वालों से जबरदस्ती दहेज वसूला जाने लगा। दहेज की मांग पूरी न होने की स्थिति में बहुओं को जलाकर मार दिया जाने लगा तथा तरह तरह की शारीरिक व मानसिक यातनाएँ भी दी जाने लगी कि जिसे देख हैवान की रुह भी कांप उठे। बेटी के बाप को अपनी बेटी के हाथ पीले करने के लिए कर्ज तक लेना पड़ता और कर्ज उतारने में सारी उम्र गुजर जाती। लड़के वालों की मांगों को पूरा करते-करते वह स्वयं पूरा (मर) हो जाता, लेकिन उनकी मांगें पूरी नहीं कर पाता था। इस दहेजरूपी दानव से निपटने के लिए सरकार ने रामबाण की भांति कानून भी बना दिए। जिसका व्यापक असर भी देखने को मिलता है, लेकिन लड़की वालों की वर पक्ष केञ् सामने झुकने की प्रवृति के कारण अभी दहेज दानव का विकराल रूप सूक्ष्म नहीं हुआ है।

दहेज नहीं हिस्सा दें अपनी बेटी को :- दहेज न देने पर बल दिया जाता है लेकिन बेटी को बाप की जायदाद में से बराबर का हिस्सा देने पर सामाजिक बल नहीं दिया जाता। दहेज विरोधी मंचों द्वारा सभाओं में सामुहिक कसमें दिलवाई जाती हैं कि हम न दहेज देंगे और न ही दहेज लेंगे। दहेज न लेना तो बहुत अच्छी बात, लेकिन दहेज न देना तभी उचित होगा जब इस बात की कसम भी खाई जाए कि मैं अपनी बेटी को अपने बेटों के बराबर जायदाद का हिस्सा दूँगा। भारत के संविधान में बेटी को भी बाप की जायदाद में से बराबर का हक है, जबकि हमारे समाज में बेटी को जायदाद का हिस्सा नहीं दिया जाता। कोई बिरला ही अपनी बेटी को अपने बेटे के बराबर जायदाद का हिस्सा देता है। आमतौर पर बेटी-बहन अपने बाप-भाई के स्नेह में या यूं कहें दबाव में आकर बिना जायदाद में से हिस्सा लिए हस्ताक्षर कर देती है तथा जायदाद में से हक नहीं मांगती।

युगों से चली आ रही बुजुर्गों द्वारा बनाई दहेज प्रथा को असली रूप में या उसके असल उद्देश्य के रूप में लेना चाहिए। अपनी बेटियों को दहेज के नाम पर जहर न भरें। यदि हम अपनी बेटियों से, बहनों से सच्चा प्यार करते हैं तथा उन्हें अपने बेटे भाइयों के समान मानने का दावा करते हैं तो उन्हें दहेज न देकर अपने बेटे-भाइयों के बराबर जायदाद में से हिस्सा देने की हिम्मत दिखाएँ।

दूल्हा बिकता है बोलो खरीदोगे :- समाज में दहेज प्रथा का विकृत रूप अपने पैर जमा चुका है। दहेज दानव को पालने पोसने का कार्य रूप वर पक्ष की ओर से ही नहीं तथाकथित कुछ पैसे वाले अहंकारी लड़की वाले भी करते हैं। एक शहर में शहर के नामी गिरामी व्यवसायी सौदागर मल की दो बेटियाँ व एक बेटा था। लड़कियाँ सामान्य दर्जें की सुंदर व शिक्षित थी, लेकिन सेठ सौदागर मल ने अपनी दोनों बेटियों की शादी आई. ए. एस. व आई. पी. एस. अधिकारियों के साथ की, जबकि सेठ परिवार को जानने वाले इस सत्य को अच्छी तरह जानते हैं कि सेठ जी की लड़कियाँ इतने बड़े आला अधिकारियों के योग्य नहीं थी। इस पर सेठ जी बड़ी शान से कहते हैं, ''भई, पूरे दो करोड़ खर्चे हैं छोरी के ब्याह म्ह''। सच कहा है दूल्हा बिकता है बोलो खरीदोगे।

पैसे के लोभवश हुई इस प्रकार की शादियों का म्ह पूरे समाज पर पड़ता है। अधिकांश लड़कियों के मां-बाप में इच्छा जागृत होती है कि काश मेरे पास भी इतने पैसे होते तो, मेरी बेटी भी इतने बड़े घर की बहू बनती और वहीं लड़के वाले भी मोटे पैसे (दहेज) के लिए लार टपकाते हुए योग्य वधुओं को ठुकराते चले जाते हैं।
 
कविता और मंजू दोनों इकट्ठी कॉलेज में पढ़ती थी। कविता सुंदर, गुणवती व पढ़ाई में अव्वल थी जबकि मंजू सामान्य दर्जे की छात्रा व सांवली, साधारण रूप रंग की लड़की थी। कविता के पिता रेलवे कर्मचारी थे। जबकि मंजू के पिता शहर के धनाडय व्यक्ति थे। पढ़ाई में अव्वल कविता ने पी.एच.डी. की जबकि मंजू ने बी.ए. तक की शिक्षा कर पढ़ाई छोड़ दी। इसे संयोग कहें या पैसे का दम मंजू का रिश्ता एक क्लास वन गजेटिड़ ऑफिसर के साथ हो गया। मंजू की एक बड़े अधिकार के साथ शादी की बात सुन कविता भी किसी बड़े अधिकारी की अर्धांग्नि बनने के सपने देखने लगी। कविता मन ही मन सोचने लगी कि मैं मंजू से कहीं अधिक सुंदर व गुणवती हूँ। यदि मंजू का जीवनसाथी बड़ा अधिकारी हो सकता है तो मेरा क्यों नहीं।

इसे कविता का दुर्भाग्य कहें या समाज में दहेज का बोलबाला। कविता के पिता-भाई द्वारा अथक प्रयासों के वाबजूद किसी भी बड़े अधिकारी का रिश्ता नहीं आया। कविता भी अपनी जिद पर अड़ी रही कि शादी करुँगी तो केवल किसी बड़े अधिकारी के साथ अन्यथा कुंवारी ही रहूंगी। धीरे-धीरे समय अपनी गति से बढ़ता गया। कविता की उम्र भी बढ़ती गई। यौवन ढलता गया और ढल गया आशाओं का सूरज। परिस्थियों के आगे अपनी इच्छाओं के विपरीत सहमति न जताने वाली गुणवती कविता आज अपने भाई के बच्चों केञ् संग 'खुश' है और खुश है उसकी भाभी, कविता की लगातार मोटी तनख्वाह पाकर। आखिर कब तक इसी प्रकार दूल्हे बिकते रहेंगे और बेमेल शादियाँ होती रहेंगी।
 

 


 

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