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    कुल का नाम लड़कों से चलता है.....?

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              समाज में यह धारणा है कि कुल (वंश) लड़कों द्वारा ही चलता है। इस तथ्य को सही ठहराने के लिए पुरुष प्रधान समाज कुछ इस प्रकार तर्क देता है कि पुरुष के वीर्य से उत्पन्न बीज से ही औलाद का जन्म होता है। जबकि सच्चाई यह है कि स्त्री और पुरुष के सयुंक्त प्रयास से ही वंश बढ़ता है। किसी भी धरती पर जैसा बीज बोया जाएगा, वैसा ही पौधा-फल उत्पन्न होता है। स्त्री एक धरती के समान है। जो उपजाऊ प्रकृति के अनुसार पुरुष के वीर्य से उत्पन्न बीज द्वारा औलाद को जन्म देती है। यदि धरती की उपजाऊ क्षमता सही न हो या उक्त बीज के अनुकूल न हो तो, बीज या तो बेकार चला जाता है या फिर पूर्ण विकसित वृक्ष नहीं बन पाता या यूं कहें कि आशानुकूल फल नहीं देता। यदि हम किसी धरती में किसी विशेष किस्म का बीज प्रत्यारोपित करते हैं तो, अंकुरित पौधा उक्त बीज के नाम से ही उस पौधे को पहचान मिलती है। भले ही पौधे को अंकुरित करने में धरती की उपजाऊ क्षमता का अहम्‌ रोल रहा हो।

लेकिन पुरुष प्रधान समाज का यह तथ्य पूर्ण सच से काफी दूर है। पुरुषों ने माना है कि स्त्री धरती है और पुरुष बीज। लेकिन वो यह भूल गए कि धरती समान स्त्री में एक्स क्रोमोसोम नामक बीज भी होता है जबकि पुरुषों के वीर्य में एक्स तथा वाई क्रोमोसोम होता है। स्त्रियां सचमुच धरती समान भेदभाव नहीं करती। परमात्मा ने उनकी प्रकृति के अनुसार केवल एक ही क्रोमोसोम (बीज) प्रदान किया है। माँ के लिए बेटा-बेटी एक समान होते हैं, लेकिन पुरुष का बीज (एक्स तथा वाई क्रोमोसोम) ही फल (लड़का-लड़की) तय करता है। यदि बीज-धरती को आधार मानकर बात करें तो संभवतयः प्रत्येक बुद्धिजीवी के अनुसार औलाद पर पिता से अधिक माँ का हक बनता है। अतः इस आधार पर तो कुल का नाम माँ के नाम से चलना चाहिए न कि पिता के नाम से।

एक गरीब किसान था। उसके पास छोटा सा उपजाऊ जमीन का टुकड़ा था। उस किसान के पास बीजने के लिए पर्याप्त मात्रा में बीज नहीं थे। जमीन की बुआई के लिए खाद व कुछ बीजों की ओर आवश्यकता थी। किसी की सहायता के बिना उसकी उपजाऊ धरती व मौजूद बीज व्यर्थ थे। एक बार उसने अपने एक मित्र से इस विषय में सहायता मांगी । उसका मित्र बेहद चतुर था। उसने खाद व बीज देने केञ् लिए एक शर्त रखते हुए कहा कि खाद और बीज तो वह दे देगा लेकिन फसल का मालिक वह स्वयं बनेगा। इतना ही नहीं फसल पकने तक उसकी रखवाली किसान को ही करनी पड़ेगी तथा फसल पकने पर कटाई, कड़ाई के बाद फसल उसे सौंपनी होगी, ताकि मंडी में फसल के दाम बतौर मालिक वो ही वसूल पाए। इसके बदले किसान को जीवन यापन के लिए अनाज उपलब्ध कराया जाएगा। किसान को अति प्रिय मित्र की शर्त सुन दुःखद आश्चर्य हुआ कि जमीन मेरी है तथा बीज का कुछ भाग भी मेरे पास उपलब्ध है। मात्र कुछ खाद-बीज के बदले मेरी जमीन पर उगी फसल पर अपनी मलकियत की मांग करना अनुचित है, लेकिन दूरदर्शी किसान ने सोचा यदि अपने इस मित्र का सहयोग न लिया तो मेरी जमीन तो बंजर रह जाएगी और मैं कुछ नहीं कर पाऊँगा। यदि इस फसल पर मेरे मित्र की मलकियत हो भी जाती है तो क्या हुआ इस फसल के उगने से मुझे संतुष्टि तो होगी और इस फसल से मुझे जीवन यापन के लिए अनाज भी प्राप्त होगा। मेरे खेत से उगी फसल से न जाने कितने लोगों का पेट भरेगा। इसी आशा के साथ भोले-भाले किसान ने अपने प्रिय लेकिन चतुर मित्र की बात मान ली।

उक्त किसान की कहानी और नारी की कहानी में कोई विशेष अंतर नहीं है। माँ बनने की रोमांचक, सुखद अनुभूति के चलते पुरुष की बात मान ली। औरत तो सदैव त्याग की मूर्ति रही है। भारत ही नहीं पूरे विश्र्व में यही सामाजिक परपंरा चल रही है कि औलाद का नाम पिता के नाम से ही चल रहा है। लेकिन यह सोचना आधारहीन है कि यदि लड़के पैदा नहीं होंगे तो वंश आगे नहीं बढ़ेगा। धार्मिक कथानुसार सीता के पिता राजा जनक के कोई पुत्र नहीं था। क्या राजा जनक के कुल का नाम कोई भूल पाया है आज तक, या पंडित नेहरू की इकलौती बेटी इंदिरा जी ने उनके कुल (वंश) के नाम को बुलंदियों पर नहीं पहुँचाया ..........? धर्मगुरु गुरु गोविंद सिंह ने धर्म के लिए अपने चार पुत्रों की कुर्बानी दे दी तथा खुद भी शहीद हो गए, वे तो धर्म के रक्षक थे, भगवान का रूप थे। यदि वंश चलाना अत्यधिक आवश्यक होता तो वे इस अनहोनी को टाल सकते थे। लेकिन उन्होंने सांसारिक प्राणी की भांति धर्म की रक्षा हेतु अपने पांचों पुत्रों सहित खुद की कुर्बानी दे दी। क्या उनके कुल का या वंश का समापन हम मान सकते हैं, कदापि नहीं। युगों-युगों तक उनके कुल की वीरता का व्याख्यान होता रहेगा।
            

 

 


 

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