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गर्भस्थ शिशु के प्रथम दस सप्ताह
 

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गर्भपात करवाने वाले अधिकतर लोग इस भ्रम में होते हैं कि गर्भाधान के तीन-चार मास बाद ही गर्भस्थ शिशु में प्राणों का संचार होता है। इससे पूर्व वह प्राणरहित, मांस का लोथड़ा मात्र होता है, पर ऐसा नहीं! जरा देखिए गर्भ में शिशु विकास की प्रक्रिया को, जिससे आपको ज्ञान होगा कि गर्भ में शिशु पहले दिन से ही जीवित रूप में होता है :


प्रथम मास :-
''तत्र प्रथमे मासि कललं जायते''।
प्रथम मास में गर्भ ''कलल'' बनता है। इसे आधुनिक भाषा में Morula कहते हैं। जो कुछ ही दिनों में एक बीजपुटी (Blastocyst) का रूप धारण करता है। शीघ्र ही इसकी तेजी से वृद्धि होने लगती है, एक महीने का होते-होते इसकी लंबाई 4 मिलीमीटर के लगभग और भार1.25 से 1.50 ग्राम तक हो जाता है।
आयुर्वेद केञ् अनुसार- पुरुष षड्‌घातुज होता है। शुक्र और शोणित के स्वयं पंचमहाभूतात्मक होने के कारण उनके संयोग के समय ही गर्भ में पंचमहाभूतों का प्रवेश हो जाता है। जीवात्मा इसी समय इसमें प्रवेश कर षड्‌घातुज पुरुष के रूप में अस्तित्व में आता है। अब हम प्रथम मास को सप्ताह के रूप में समझाते हैं कि सप्ताह के अनुसार गर्भ में क्या-क्या परिवर्तन होते हैं।


प्रथम सप्ताह :- इसमें कलल बुदबुदाकार का होता है। इसमें कोशिकाओं का बंटवारा होता है।


दूसरा सप्ताह :- इसमें कलल घन हो जाता है और वह कलल (जीव)माँ के द्वारा किए गए भोजन में से पोषण पाने लगता है।


तीसरा सप्ताह :- इसमें कलल मांसपिण्ड रूप का आकार ले लेता है। जीव की आँखें, रीढ, मस्तिष्क, स्पाइनल कोर्ड, स्नायुतंत्र, पेट, लीवर, फेफेडे, गुर्दे आदि के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। 18वे दिन दिल की धड़कन शुरू हो जाती है। आधुनिक मतानुसार, तीसरे सप्ताह से ही हृदय स्थल पर अत्याधिक सूक्ष्म स्पन्दन होने लगता है। प्रमस्तिष्क और नेत्र-पुटिकाएँ (Cerebral and optical visicles) झलकने लगती हैं। अन्तःस्था खतिकाएँ (Medullary groove)बनना आरंभ हो जाती है।


चौथा सप्ताह :- इसमें पांचों तत्व उत्पन्न हो जाते हैं। सिर बनने लगता है। और हाथ-पाँव बनने लगते हैं।
 


द्वितीय मास :
''द्वितीये शीतोष्मानिलर भिप्रपच्यमानानां महाभूतानां सड्धन्तो घन : सञ्जायते, यदि पिण्डः पुमान्‌, स्त्री चेत्‌ पेशो, नपुंसंक चेदर्बुदामिति''।

दूसरे महीने में गर्भ की संज्ञा ''घन'' होती है। इस अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते वह घनीभूत होता है। उसमें वर्तमान पंचमहाभूतों के तत्त्व वात, पित्त और कफ से परिपक्व होकर एक ठोस इन्द्रियगम्य आकार धारण कर लेता है। इसकी लंबाई 25 मिलीमीटर और भार 4 से 20 ग्राम तक होता है।
अब इसे सप्ताहानुसार वर्णित करते हैं।


पाँचवा सप्ताह :- छाती और पेट तैयार होकर एक दूसरे से पृथक हो जाते हैं। आँखों पर लैंस व रैटिना आ जाता है। कान बन जाते हैं। अब उसका सामान्य स्वरूप मानवीय भ्रूण जैसा दिखलाई पड़ने लगता है। नाक, कान, पलकों की आकृति स्पष्ट होने लगती है।


छठा व सातवां सप्ताह :- शरीर के सब अंग, सिर, चेहरा, मुंह व जीभ बनकर तैयार हो जाता है। मस्तिष्क विकसित होने लगता है। बच्चे के लिंग का पता लग जाता है। वह अपने हाथ और पैर हिला सकता है।


आठवां सप्ताह :-नीचे का पुच्छ जैसा दिखलाई देने वाला भाग लुप्त हो जाता है। गर्भ-शरीर की वक्रता कुछ कम हो जाती है। सिर ऊपर की ओर उठने लगता है। कुछ उपास्थियां (Cartilages) अस्थियों में बदलने लगती हैं।

 


तृतीय मास :-
''तृतीये हस्तपादशिरसां पञ्च पिण्डका निर्वर्तन्तेडड्गप्रत्यड्ग
विभागश्र सूक्ष्मो भवति।''
तीसरे महीने में दो हाथ-पैर, सिर और इनकी पांच पिण्डकाएँ निकल आती हैं। अंग-प्रत्यांग विभाग सूक्ष्मरूप में प्रकट होने लगता है। तीसरे महीने में प्रायः सभी आचार्यों ने इंद्रियों एवं अंगावयवों की एक साथ उत्पति मानी है। कश्यप ने मन की अधिक अभिव्यक्ति, गर्भ के चेतनायुक्त होने, उसे वेदना का ज्ञान होने और स्पन्दन करने की बात भी कही है। आधुनिक मतानुसार, गर्भ की लंबाई तीसरे महीने में 10 सेंटीमीटर और भार 150 ग्राम हो जाता है। सिर धड़ से ग्रीवा द्वारा विभक्त हो जाता है।


नवां व दसवां सप्ताह :-इसमें दो हाथ, दो पैर, सिर और इनकी पाँच पिंडकाएँ निकल जाती है। अंग-प्रत्यंग विभाग सूक्ष्म रूप में प्रकट होने लगती है। बच्चा तैरने की मुद्रा में हिलता है। जागने व सोने की क्रियाा करने लगता है। उसके दिल की धड़कन अल्ट्रासोनिक स्टैथस्कोप पर सुन सकते हैं।
इन सब बातों से पता चलता है, गर्भ में शिशु पहले दिन से ही प्राणवान होता है।


 

 

 

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