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छोरा मरे निरभाग का, छोरी मरे भाग्य की

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            हरियाणा में प्रचलित एक क्षेत्रीय कहावत है, छोरा मरे निरभाग का, छोरी मरे भाग्य की। अर्थात किसी व्यक्ति का पुत्र मर जाता है तो वह निरभाग्य होता है यानि दुर्भाग्यशाली होता है और यदि किसी व्यक्ति की पुत्री मर जाए तो ऐसा माना जाता है कि पुत्री के भाग्य में इतनी ही उम्र थी। समाज में संतान के लिए ही अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाए जाते हैं। भाग्य को मानने वाले आस्तिक लोग जब यह मानते हैं कि हर इंसान का अपना-अपना भाग्य होता है यद्यपि बेटा मरने पर माँ-बाप अभागे माने जाते हैं तो बेटी के मरने पर माँ-बाप के भाग्य का जिक्र न कर मृत बेटी के भाग्य को ही जिम्मेदार क्यों ठहराया जाता है? क्या यह मान लिया जाए कि बेटा मरने पर माँ-बाप दुर्भाग्यशाली और बेटी मरने पर माँ-बाप ................. होते हैं। रिक्त स्थान पर संभवत्य सौभाग्यशाली शब्द लिखा जा सकता होगा। लेकिन इस शब्द को उक्त स्थान पर लिखने मात्र से रूह कांप उठती है। इस कहावत का समाज में स्पष्ट चित्रण देखने सुनने को मिलता है। बेटी के जन्म लेते ही उसे नमक चटाकर मारने वाले या चारपाई के पावैं तले दबाकर मारने वालों के लिए तो बेटी की मौत की खबर किसी खुशी की खबर से कम नहीं होती होगी। कन्या भ्रूण हत्या करने में तनिक भी संकोच न करने वाले व्यक्ति को शायद बेटी की मौत की खबर देर आयत, दुरुस्त आयत, की भांति होगी! उक्त कहावत इस प्रकार केञ् पितृ सकरात्मक सोच के लोगों द्वारा ही गढ़ी गई होगी। जीवनदायनी नारी का जीवन छिन जाने पर अफसोस के नाम पर मात्र उसके भाग्य को दोषी ठहराकर इतिश्री कर दी जाती होगी।

पुत्र उत्पति को रत्न वर्षा सम्मान माना जाता है। बेटे के जन्म पर घर की बड़ी-बूढ़ी औरतें एक थाली या कनस्तर खड़काकर पूरे मुहल्ले में अपनी खुशी का इजहार करती हैं, लेकिन जिस घर में कन्या के जन्मते ही मातम सा छा जाता हो, जच्चा की कुशल क्षेम तक भी न पूछी जाती हो। ऐसे में अनचाही औलाद की लंबी उम्र की कामना भला कौन करता होगा? उसकी मौत पर भला कौन मातम करेगा? मातम तो उसके जन्म लेने पर किया जा चुका है, अब मौत पर संतोष करना बाकी रहा होगा।

समाज में महिलाओं को पुत्रवतीभव का आशीर्वाद दिया जाता है। कभी भी पुत्रीवतीभव का आशीर्वाद नहीं दिया जाता। पुत्री का जन्म तो उसके भाग्य से ही होता है। न चाहते हुए भी उसका जन्म हो जाता है। अभिभावकों द्वारा पुत्री जन्म को टालने के लिए (कन्याभ्रूण हत्या या लड़का होने की शर्तीया दवा के सेवन द्वारा) भरसक प्रयास किए जाते हैं तथा पुत्री के स्थान पर पुत्र रत्न प्राप्ति के लिए ईश्वरीय अनुष्ठान किए जाते हैं लेकिन भाग्यवश पुत्री का जन्म ही हो जाता है। सच है पुत्री का जन्म स्वयं उसके भाग्य से ही होता है तथा मरण भी उसके भाग्य से ही होता होगा। कुछ लोगों द्वारा कन्या के भ्रूण का पता लगते ही गर्भ में ही हत्या कर देना, जन्म के फौरन बाद बेटी को नमक/तेजाब चटाकर या चारपाई के पावैं तले दबाकर मार देना, जन्म लेते ही उसे कूडेदान में फेंक देने जैसी घटनाओं को देखते हुए ऐसा लगता है कि मानो पुत्री का जन्म और मृत्यु उसके भाग्य पर ही निर्भर है।

टेलरिंग (दर्जी) का काम करने वाले लक्ष्मण दास की पत्नी संतोष के पहले से ही तीन बेटियां थी। बेटे की चाहत में बार-बार गर्भवती होती, लेकिन गर्भ लिंग जांच में हर बार कन्या होने पर गर्भपात करवा लेती। आजकल कुछ अल्ट्रासाउंड सैंटरों के संचालक लिंग जांच करते है, लेकिन स्वयं इशारे से लिंग की जानकारी न देकर अपने कम्पाउंडर से इशारा करवाते हैं। छठी बार जांच के बाद इशारा नाकारात्मक पाने पर गर्भपात करवाया गया, लेकिन परमात्मा को कुछ और ही मंजूर था, इस बार गर्भपात के बाद ज्ञात हुआ कि जिस भ्रूण की हत्या की गई है, वो कन्या भ्रूण नहीं, लड़के का भ्रूण  था। इससे दम्पति को गहरा दुःख पहुंचा। डॉक्टर के साथ झगड़ा भी किया, लेकिन कानून के भय से बात शांत हो गई। लंबे समय बाद सदमे से उभर संतोष पुनः पुत्रेच्छा से गर्भवती हो गई। इस बार झगड़े में हुई बदनामी के कारण लिंग जांच न हो पाई,पुनः कन्या होने का भय, निराशा, आशंका, केञ् साथ-साथ पुत्र होने की आशा के बीच प्रसव का समय आ गया। अंत में वही हुआ, जिसका भय था, नर्स ने बताया कि कन्या ने जन्म लिया है। इतना सुनते ही लक्ष्मण दास के दुःख और गुस्से का ठिकाना न रहा और उसने वहीं अस्पताल में ही पत्नी की धुनाई कर डाली और घर जाकर कई नींद की गोलियां खा ली। जैसे-तैसे बेचारी पत्नी और गुस्सैल पति को बचाया, लेकिन बच्ची की बदकिस्मती देखिए, अनचाही बच्ची की जच्चा ने पति के भय व दुख के कारण बच्ची को अपने साथ घर ले जाने से मना कर दिया। बेचारी बच्ची वहीं हस्पताल में नर्स के पास अनाथ की भांति अकेली रह गई। नर्स जोकि संतोष की पड़ोसन थी, ने काफी समझाया, लेकिन संतोष-लक्ष्मण नहीं माने। अंत में एक दम्पति उस बच्ची को अपनाने केञ् लिए राजी हो गए। धन-धान्य से संपन्न उस दम्पति के कोई औलाद नहीं थी। उन्होंने बच्ची को सहर्ष गोद ले लिया। इस दम्पति ने उस बच्ची को अपनाकर समाज को नई दिशा दी। उन्होंने उसकी पहली लोहड़ी पर्व को बड़ी धूमधाम से मनाया। अब वह बच्ची चार वर्ष की हो गई। बेहद, सुंदर, मासूम और शरारती बच्ची उस दम्पति की ही नहीं पूरे मौहल्ले की खुशी है।
             
 

 


 

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