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महिला
हमेशा ठगी जाती रही है। जन्म से पहले, जन्म के बाद, बचपन, जवानी,
बुढ़ापे तक में नारी का शोषण होता है। यह शोषण आज से नहीं अपितु
हजारों वर्षों से चला आ रहा है। जन्म से पूर्व ही उसे माँ की कोख
में ही दफऩाने की साजिशे रचीं जाती हैं, साजिशें नाकाम होने पर
अनचाही कन्या के जन्म लेने पर उसे नमक चटाकर, चारपाई के पावें के
नीचे दबा कर मारने तक का अमानवीय कर्म किया जाता है। पुत्री जन्म
की खबर सुनते ही घर में खुशी के स्थान पर मातम का माहौल बन जाता
है। बचपन से ही उसे पराया धन कहा जाने लगता है। जब एक कन्या को
पराया कहकर ही संबोधित किया जाता हो, तो भला उसके लिए अपनापन कैसे
आएगा। बेचारी कन्या को उसके भाई से कम खाने को देना, घटिया वस्त्र
पहनने को देना, शिक्षित न करना आम बात है। जैसे-तैसे बड़ी होती बेटी
की शादी कर गंगा स्नान की सुखद अनुभूति प्राप्त कर अपने आप को
दायित्व मुक्त समझते हैं पितृ सकरात्मक प्रवृति के इंसान। इस दौरान
बचपन से जवानी तक एक नारी को अपनी अस्मिता की रक्षा स्वयं करनी
पड़ती है। मर्दों की कामाग्नि पूर्ण आँखों से अपने बदन को जलने से
बचाती रहती है। बाहरी मर्दों की वासना से बचती बचाती नारी को कई
बार घरेलू यौन हिंसा का शिकार भी होना पड़ता है। इस तरह के
कुक्र्त्यों को सांसारिक पतन मान कर भगवान की शरण में गई महिलाओं
को तथाकथित धर्मगुरुओं ने भी नहीं
बख्शा, धर्म के ठेकेदारों द्वारा बनाए पौराणिक ग्रंथ भी नारी शोषण को बढ़ावा देने व उसके शोषण की ''गरिमामयी'' कथाओं से भरे पड़े हैं।
नारी के शोषण की कहानियाँ तो मर्यादा
पुरुषोत्तम राम के साथ व
उनके काल के दौरान भी हुई। स्वयं माता सीता को भगवान राम ने
शंकित निगाहों से देखा और माता सीता को अग्नि परीक्षा देनी पड़ी और
फिर अयोध्या में एक धोबी के कहने भर से सीता को वनवास भेज दिया।
सीता तो रावण के द्वारा जबरदस्ती उठा ली गई थी और एकान्त स्थान
पर राक्षसणियों की देख-रेख में अशोक वाटिका में
कैद रही। जिसे
स्वयं हनुमान जी ने देखा, लेकिन श्री राम तो वनों में आजाद थे, उन
पर तो सीता माता ने संदेह नहीं किया। अयोध्या में तो धोबी के कहने
पर तथा संभवतयः राजनीति के दबाव में जनता के भड़कने के भय से
सीता का त्याग कर दिया होगा, लेकिन रावण वध के पश्चात लंका से
सीता को छुड़ाने पर सीता को किस के कहने या किस दबाव में अग्नि
परीक्षा देने को कहा,
क्या स्वयं श्री राम शंकित थे? स्वयं मर्यादा
पुरुषोतम श्री राम ने अपनी पवित्रता
का क्या सबूत दिया नारी सीता
को?
मर्यादा पुरुषोत्तम राम के काल की एक अन्य कथा के अनुसार अहिल्या
को देवराज इंद्र व चंद्रमा ने छला। जब
ऋषि गौतम, इंद्र और चंद्रमा
का तो कुछ न बिगाड़ सके, तो बेचारी नारी पर ही अपना
ऋषि ज्ञान-विज्ञान का प्रयोग कर डाला और
क्रोध में अहिल्या को पाषाण
मूर्ति बना दिया। आखिर स्वयं भगवान राम ने पाषाण
मूर्ति बनी
अहिल्या को अपने चरणों का स्पर्श दिया, तब वह पुनः पवित्र हो नारी
रूप में परिवर्तित हुई। माता सीता तो कई वर्षों तक श्रीराम के साथ रही, तो सीता
कैसे अपवित्र रह सकती थी।
नारी को दोयम दर्जे की नागरिकता प्रदान करने की स्थाई व लिखित
व्यवस्था धर्म
ग्रंथों से ही शुरू होती है। बाइवल के अनुसार, 'और
स्त्री को पूरी अधीनता से सीखना चाहिए और मैं कहता हूँ कि स्त्री न
उपदेश करे और न ही पुरुष पर आज्ञा चलाए, परंतु चुपचाप रहे,
क्योंकि
'आदम' पहले और उसके् बाद 'हौवा' बनायी गई और आदम को बहकाया न गया,
पर स्त्री बहकावे में आकर अपराधिनी हुई। तो भी बच्चे जनने के द्वारा उद्धार पाएगी, यदि वे सयंम सहित विश्र्वास, प्रेम और
पवित्रता से स्थिर रहे।' (नया नियम, तीमुस्थियुस
के नाम पौलुस
प्रेषित की पहली पत्री, पृष्ठ
30) विचारणीय विषय यह है कि
सर्वशक्तिमान
ईश्वर के सामने बहकाने या न बहकाने का प्रश्न
ही क्यों खड़ा हुआ?
फिर बहकावे में आने वाला
व्यक्ति अपराधी होता है या बहकाने वाला? और
बच्चा जनने तथा अपराध से उद्धार पाने
का क्या संबंध?
कुरान मजीद के पारा-2, सूरत-2, आयत
223 के अनुसार 'तुम्हारी बीवियां
तुम्हारे लिए खेतियां है, बस जाओ जिस तरह चाहो अपने खेत
में।' आश्चर्य है आज के वैज्ञानिक युग का मानव भी सांतवी सदी की
अतार्किक परिणती को हृदय से स्वीकार कर रहा है।
यहूदी लोग प्रातः काल की प्रार्थना में कहते हैं 'ईश्वर का भला हो
कि उसने हमें औरत नहीं बनाया।' निःसंदेह ऐसी स्थिति में उनकी औरतों
को कहना चाहिए 'ईश्वर का बुरा हो कि उसने हमें औरत बनाया।' मगर वे
अपनी प्रार्थना में कहती हैं, 'ईश्वर का भला हो कि उसने हमें पुरुषों
की इच्छाओं के
अनुरूप बनाया।' इस तरह की प्रार्थनाओं के पीछे,
पुरुषों की भोगवृति साफ झलकती है।
मनुस्मृति में कई स्थानों पर नारी को अपमानित किया हैः
-ऐसी पत्नी जिससे
केवल पुत्रियां ही प्राप्त हो उसे उसके पति
द्वारा त्यागने का अधिकार है।
-पति भले ही कितना ही दुराचारी हो, पत्नी को उसे देवता समान मानकर
उसकी सेवा करनी चाहिए।
-इतना ही नहीं बाइबल ओल्ड टेस्टमंद में लिखा हैः नारी को संतान न
होना महापाप है।
तथा धर्मगुरु संत ऑगर्स्टन ने कहा है कि नारी चाहे माता
के रूप
में हो या बहन के
रूप में, उससे सदैव सचेत रहना चाहिए,क्योंकि प्रत्येक नारी में हौवा का वास होता है।
-महाभारत आदिपर्व अध्याय
122 में पांडू, अपनी पत्नी
कुंती को विवाह प्रथा
कैसे शुरू हुई की कथा बताते है। एक बार
ऋषि उदद्वालक की पत्नी को स्वयं उसके व उसक् पुत्र
श्वेत्केतू के सम्मुख एक अन्य
ब्राह्मण, मिलन हेतु बलपूर्वक खींचकर ले जाता
है। पुत्र
श्वेत्केतू से यह बर्दाश्त नहीं होता, वो इसका विरोध
करता है, लेकिन
ऋषि उदद्वालक अपने पुत्र को विरोध करने से रोकता
है और कहता है, हे पुत्र! यह धर्म संगत है,
ब्राह्मण का यह कृत्य धर्मानुसार है।
श्वेत्केतू ने धर्म व पिता की आज्ञा की अवमानना करते हुए नारी
संरक्षण हेतू विवाह प्रथा
शुरू की, लेकिन तत्कालीन सामाजिक व
धार्मिक उन्मादता का पूर्ण त्याग न करते हुए व्यवस्था ने नारी को
फिर से छला। उसने विवाह व्यवस्था में पति इच्छा से पुत्र कामना
पूर्ति हेतू अन्य मर्द से संसर्ग की छूट प्रदान कर दी। इस प्रथा का
राजाओं सहित
ऋषियों ने भी जमकर दुरुपयोग कर नारी शोषण किया। अपनी
स्वार्थ सिद्घि हेतु पुत्र कामना की आड में पत्नी अन्य राजा को
सौंपते रहे, इस प्रथा को नियोग के नाम से जाना जाता था।
नारी का सदैव शोषण होता रहा है। पुरुष कोई भी अनैतिक कार्य करे, वह
कभी अपवित्र नहीं होता, जबकि स्त्री को अपवित्र मानते देर नहीं
लगाता समाज। इनता ही नहीं धार्मिक मान्यता
के अनुसार प्राकृतिक
नियम मासिक धर्म के पश्चात नारी अपवित्र हो जाती है। उसके मंदिर प्रवेश पर रोक लगा दी जाती है तथा घर की रसोई में भी प्रवेश
वर्जित कर दिया जाता है। मुस्लिम मान्यता अनुसार
कुरान में उसक्
शुद्घिकरण का खूब लंबे-चौड़े कर्मकांड का उल्लेख है। भला भगवान
द्वारा बनाए
प्राकृतिक चक्र में बेचारी नारी
का क्या दोष? वह
अपवित्र कैसे हो गई।
कुछ वर्ष पूर्व तक भारतीय समाज में सती प्रथा का बोलबाला था,
पति की मृत्यु के
पश्चात नारी को बोझ समझने वाला समाज
जबरदस्ती उसे, उसके पति के साथ जिंदा जला देता और उसे सती का
दर्जा दे दिया जाता। जैसे-तैसे राजाराम मोहनराय सरीखे समाज सुधारकों
ने इस प्रथा को बंद करवाया।
पति की दीर्घायु की कामना के लिए पत्नियां करवा चौथ का व्रत करती
हैं, भले ही उनका पति
उनके बीमार पड़ने पर उसे दवा के लिए पैसे
तक ना दे।
पौराणिक कथाओं
क् अनुसार पांडव जुए में अपनी पत्नी द्रोपदी को
दाव पर लगा देते हैं, उन्होंने पहले स्वयं को दाव पर
क्यों नहीं
लगाया, इसी प्रकार सत्यवादी राजा हरिशचंद्र ने सत्य वचन पूरे करने
क् लिए सबसे पहले अपनी पत्नी को नीलाम किया, फिर अपने पुत्र को,
फिर स्वयं को नीलाम किया। सत्यवादी हरिशचंद्र ने अपने आप को पहले
नीलाम क्यों नहीं किया। बेचारी नारी को सदैव खिलौना मानने वाले समाज
ने इसे पुरुषों से तुच्छ दर्जा ही प्रदान किया है।
आडम्बरी मर्यादा की जंजीरों में जकड़ी सहनशील
प्रकृति की नारी सब
जानते हुए भी सब
कुछ सहती रही। आखिर कब तक सहेगी.... और
क्यो सहेगी.......?
किसी भी शुभ कार्य जैसे विवाह शादी इत्यादि में यदि कोई विधवा सामने
आ जाए तो उसे मनहूस समझ कर भला बुरा कहा जाता है जबकि कोई रंडवा (जिसकी
पत्नी मर चुकी हो) सामने आ जाए तो अशुभ नहीं मानते। जीवन साथी तो
दोनों स्थितियों में मरे हैं फिर ये भेदभाव व अन्याय नारी जाति के साथ ही
क्यो?
हम सबको मिलकर इन बुराइयों,
कुरीतियों को बंद करना होगा जब तक
स्त्री-पुरुष एक समान नहीं माने जाएंगे, तब तक कोई स्त्री नहीं
चाहेगी कि उसकी कोख में पल रहा शिशु कन्या हो और वह भी उसी की भांति
तिरस्कृत जीवन व्यतीत करे।
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