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      मातृत्व - एकमात्र हक नारी का

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         यदि आप से पूछा जाए कि सबसे पवित्र और सच्चा रिश्ता कौन सा है? तो हो सकता है जवाब भिन्न-भिन्न हों, लेकिन अधिकांश भारतीयों का जवाब होगा- माँ और संतान का। यह सच भी है। माँ और संतान का रिश्ता ही सच्चा व पवित्र होता है। एक स्त्री, एक आत्मा को अपने शरीर में धारण कर नौ माह गर्भ में रखकर एक मनुष्य के शरीर के रूप में पैदा करती है, तभी वह माँ कहलाती है। माँ और संतान का रिश्ता सच्चा व पवित्र होने के साथ-साथ भावनाओं से भी जुड़ा होता है तथा अति महत्वपूर्ण भी होता है। यदि विश्वास नहीं होता हो तो अपने आस-पास ऐसे लोगों की तलाश करें जिनकी माँ नहीं है। आप फिर उनसे इस रिश्ते के बारे में पूछे। माँ की कमी का दर्द भरा अहसास उसकी जुबां के साथ-साथ आंखों में भी झलकेगा। यदि मैं अपनी बात करूँ तो मुझे दुनिया में माँ से अधिक और कोई प्यारी नहीं लगती। मेरी माँ दुनिया की सबसे अच्छी, सुंदर, सवेंदनशील व स्नेहा स्त्री है। इस बात पर मुझे गर्व है। संभवतय ऐसी भावना प्रिय पाठक आपकी भी होगी अपनी माँ के प्रति।

आप अपनी भावनाएं प्रकट कर सकते हैं। श्रद्धासुमन अर्पित कर सकते हैं, उस पर कविताएं लिख सकते हैं, कहानियां/लेख लिख सकते हैं, लेकिन माँ शब्द की पूर्ण व्याख्या नहीं कर सकते। एक बार मैं अपने मित्रों के साथ मंसूरी जा रहा था तो रास्ते में बातों-बातों में पत्नियों के व्यवहार पर चर्चा होने लगी। चर्चा के दौरान सभी साथी अपने अनुभव शेयर करने लगे। तभी एक दोस्त ने अपनी बीवी की तारीफ करनी शुरू की। एक अन्य दोस्त ने चुटकी लेते हुए कहा, यार, भाभी की तारीफ तो खुब हो गई, कभी अपनी माँ की भी तारीफ कर। तब पहले दोस्त ने कहा, जब माँ ही कह दिया तो शेष क्या रह गया।

बहुत ही गहरी संवेदना भरी बात कही। सच, माँ शब्द में संसार समाया हुआ है। माँ शब्द के आगे अन्य तारीफ शब्द गौण पड़ जाते हैं। शायद इसी लिए हम माँ की नहीं, माँ की ममता की बातें करते हैं। उसकी गाथा गाते हैं, लेकिन...... हम कभी माँ नहीं बन सकते। माँ के लिए आपका स्त्री होना आवश्यक है। यहां 'स्त्री' से मेरा आशय हर उस स्त्री से है जिसने पूरा जीवन ही लड़ते हुए बिताया, कभी अपनों के लिए, तो कभी अपने अस्तित्व के लिए। हम माँ की ममता कहाँ से लाएंगे, जो उसे विरासत में मिली है। इंसान हर ऋण से मुक्त हो सकता है, लेकिन मातृऋण से कदापि नहीं, लेकिन समय की तेज रफ़्तार ने बढ़ती उम्र के साथ-साथ माँ जैसे पवित्र रिश्ते को लेकर भावनाएं बदलने लगी हैं। कुछसौभाग्यशाली इंसानों के लिए मां, मां दुर्गा से कम पूज्य नहीं और दुर्भाग्यशालियों के लिए वही माँ बोझ बन जाती है। वही माँ जिसने उसे अपनी कोख में नौ महीने रखकर इस दुनिया में पैदा किया, वही माँ जो खुद भूख से लड़ते हुए अपने बच्चों के लिए दो जून की रोटी का जुगाड़ करती है। वही माँ आज अपने गबरू बेटे/बहू के राज में दो जून की रोटी से महरूम है।

लेकिन माँ को इसकी परवाह नहीं, न आज की माँ को है, न बीते कल की माँ को थी। शायद इस अंजाम की परवाह आने वाले कल की माँ को भी न हो। माँ बनने की खुशी में वो सबकुछ भूल जाती है। माँ बनने के रोमांचक एहसास से लेकर मृत्यु प्राप्ति तक माँ के हृदय से केवल ममता का ही प्रवाह होता है। दुख या अफसोस पर ममता हावी रहती है। इसी ममता की भावना को स्त्री की कमजोरी मान पुरुष समाज ने माँ (स्त्री) को भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया। जिसे माँ ने सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। मातृत्व प्राप्ति के दौरान प्रसव पीड़ा व बाद के कष्ट-तनावों को भी सहने में संकोच नहीं किया। पुरुष वर्ग ने माँ (स्त्री) को भावनात्मक रूप से दबाते हुए अपने हिस्से की जिम्मेवारियों को भी नारी के कंधों पर डाल दिया। बच्चे के लालन-पोषण की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए माँ को ही बच्चे की परवरिश का जिम्मा सौंप दिया।
 
कहते हैं, माँ बनने के सुख पर मात्र स्त्री का हक होता है, तो माँ न बनने का हक भी स्त्री को मिलना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता। यह भी कहते हैं कि नारी, मातृत्व प्राप्ति के बाद ही पूर्ण होती है। माँ बनने का गौरव प्राप्त कर परम आनन्द पाती है। यह पूर्ण सत्य नहीं है। भारतीय समाज में ही नहीं, अधिकांश विश्व में माँ बनने का सुख तभी सुख कहलाता है जब उस बच्चे को बाप का नाम देने वाला कोई हो। अन्यथा वह सुख, दुःख में बदल जाता है और जीवन कलंकित हो जाता है। माँ शब्द आते ही हम और आप मातृत्व का स्तुति गान शुरू कर देते हैं लेकिन यदि एक अनब्याही स्त्री माँ बन जाती है तो हम उसे त्तिरस्कृत करते हैं, समाज पर कलंक कहते हैं जबकि विवाहिता हो या अविवाहिता दोनों ही सुरतों में स्त्री, पुरुष के संसर्ग से ही माँ बनती है। तब क्यो अनब्याही माँ का मातृत्व स्तुत्य नहीं होता। जबकि प्रेम कहें या पाप दोनों(स्त्री-पुरुष) ने किया फिर दंडि़त केवल स्त्री ही क्यों? और वहीं किसी पुरुष द्वारा उस स्त्री व बच्चे को अपना लेने से वही मातृत्व पुनः पवित्र हो जाता है, स्तुत्य हो जाता है। यदि मातृत्व स्तुत्य है तो बेटियों की माँ त्तिरस्कृत क्यो?

समाज में मातृत्व को स्तुत्य या त्तिरस्कृत करने के फैसले में सामाजिक मानदंडों में भिन्नता है। माँ के मातृत्व पर पितृसत्तात्मक सोच की हुकूमत है।
            

 

 
     


 

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