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       नारी के साथ ही क्यों...?

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          ''मेरी बीबी शादी से पहले चंद्रमुखी थी, लेकिन अब ज्वालामुखी लगती है''
          ''पत्नी नहीं वो पनौती है''
         ''भारत को आजादी 15 अगस्त 1947 को मिल गई थी, लेकिन हम बेचारे शादीशुदा तो उस दिन आजाद होते है, जब बीबी मायके चली जाएं''
         ''कुंवारे थे, तो खूब ऐश थी, अब तो बस...''
         इतना ही नहीं और भी न जाने कितने ही भद्दे मजाक किये जाते है, नारी के विषय में। नारी मजाक ही तो है पुरुष के लिए? पुरुष को ही तो हक है नारी के कोमल हृदय पर वार करने का? कभी आपने सुना है, किसी स्त्री ने कहा हो, मेरा पति, पति नहीं पनौती है। यह शादी से पहले हीरो लगता था, लेकिन बाद में पता चला यह तो जीरो है या फिर पुनः कुंवारी होने की इच्छा जाहिर की है? शायद कभी न सुनी होगी स्त्री के मुख से ऐसी बातें। यदि किसी स्त्री ने क्रञेधवश या मजाक में कह भी दिये हो, तो उसे चरित्रहीन की उपाधि देने में देर नहीं करता समाज, लेकिन पुरुष द्वारा किये गए इस मजाक पर कहकहे लगाए जाते हैं और उस पुरुष को बड़ा रंगीला या दिलखुश इंसान की उपाधि दी जाती है।

शादी से पहले प्रेमिका के रूप में तथा शादी के बाद पत्नी के रूप में नारी को हास्य का पात्र बनाया जाता रहा है। शादी के समय भी लडक़े के दोस्त, दुल्हे को छेड़ते हुए कहते है-बकरा हलाल होने जा रहा है। जबकि शादी के रिश्ते में ज्यादातर पुरुष को ही उसकी मर्जी और सुविधानुसार जीवन साथी मिलता है, लेकिन वधू पक्ष की ओर से कभी कोई नहीं कहता कि तंदूरी चिकन बनने को तैयार हो रही है दुल्हन।

नारी, नुकीले कटाक्ष सहने के बाद भी क्यो चुप रहती है? और क्यो खुशी-खुशी शादी करने को राजी हो जाती है? क्या लड़कियाँ सुरक्षा, आजादी, सुविधा और अपनेपन की चाहत में शादी करने को राजी होती हैं? बचपन से ही माँ-बाप दुलार के साथ-साथ पराया धन की भावना लड़की में मन में भर देते हैं। बंदिशों की बेडि़यों में जकड़ी लड़की आजादी चाहती है, अपना धन बनना चाहती है। कुंवारे बदन पर वासनात्मक निगाहों को सिंदुर की लक्ष्मण रेखा से अपने आपको सुरक्षित रखने की चाहत में शादी के लिए सहर्ष राजी हो जाती हैं। माँ-बाप के घर में जो हजारों बंदिशें उन पर होती है, वे सोचती है कि शादी के बाद उन बंदिशों से मुक्ति मिल जाएगी। 'श्रीमती जी' की उपाधि से अलंकृत होने पर लालबत्ती की गाड़ी और कमांडो जैसी सुरक्षा मिल जाएगी?

हिन्दुस्तान में एक समय ऐसा भी था, जब स्त्रियों को जीवन साथी चुनने की पूर्ण आजादी होती थी, लेकिन आधुनिक युग में इस आजादी को छीन लिया गया। हिन्दू धर्म में बारह तरह के विवाहों को मान्यता प्राप्त है। जिसमें प्रेम विवाह भी सम्मिलित है, लेकिन प्रजापति विवाह, जिसमें पिता, पुत्री का दान करता है, उसे ही सामाजिक मान्यता प्राप्त है।

नारी के दिल में असुरक्षा की भावना बलवती होती है। शायद इसलिए वह अपने प्रेमी से शादी की जिद्द न कर, माता-पिता द्वारा तयशुदा युवक से शादी करने की हामी भर देती है। भले ही वह उसे पसंद ही न हो। लड़कियां ऐसा क्यों करती है? शायद असुरक्षा के कारण, विवाह उपरांत पति या ससुराल से न बने तो मायके की सपोर्ट मिलने की आशा लिए अपनी चाहत को दबा लेती हैं। आज के युग की नारी अच्छी तरह जानती है कि प्रेम विवाह करने से पारिवारिक माहौल का सरलीकरण नहीं होगा। वर पक्ष के परिजनों का व्यवहार वैसा ही होगा, जैसा भारतीय बहुओं के साथ होता है, बल्कि उससे भी बद्दतर। प्रेम विवाह में भी दहेज, स्त्री की दोयम दर्जे की स्थिति, बहुओं के लिए वही सोच, वह कैसे कपड़े पहने, क्या खाए, क्या भजन गाए या ना गाए, किससे मिले, घर से बाहर कब जाये, कब न जाए, अगर कमा कर लाती है, तो कमाई के पैसों पर उसका स्वयं का हक कितना होगा, नौकरी के दौरान ओवर टाईम करे या न करे, इसका फैसला भी बॉस नहीं परिजन करते हैं। इतना ही नहीं बेटा-बहू बच्चा कब प्लान करें, यह भी उन पर निर्भर नहीं होता। बहुत-सी अन्य छोटी-बड़ी बातों के लिए रोज-रोज जद्दोजहद करनी पड़ती है।
 
अमृता-प्रीतम की कम्मी और नंदा में कम्मी अपनी मां से पूछती है कि माँ तुम पिताजी को छोड़ क्यों नहीं देती, माँ कहती है औरतें गीले आटे जैसी होती है। घर में रहती है तो उन्हें चूहे खाते हैं और बाहर कौएं उन्हें नहीं छोड़ते। शायद यह बातें शब्दों में हमें कभी नहीं कही जाती, लेकिन कौएं न खा पाएं इसलिए किसी चूहे के हवाले कर दिया जाता है। बस चूहा ऐसा हो जो इस आटे को हमेशा गीला बना रहने दे, सुखने न दे।

स्त्रियां सब सह लेती हैं। क्योंकि उन्हें बचपन से ही सहने की शिक्षा जो दी गई होती है। यदि कोई स्त्री तनिक भी विरोध करती है, तो उसे धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं की दुहाई दे, चुप करवा दिया जाता है। फिर भी यदि कोई स्त्री इन मान्यताओं को न मानने की 'गुस्ताखी' कर दे, तो उसे अनेक ''उपाधियां '' देने में समाज संकोच नहीं करता। भले ही स्त्री मन-कर्म-वचन से पतिव्रता हो और यदि वो करवाचौथ का व्रत न करें, तो उसे व्यभिचारिणी की उपाधि देने में चंद लोग अपने आपको अधिकृत मानते हैं। इस प्रकार की उपाधि वितरक संस्था के लोग कैसे मान लेते है कि करवा चौथ का व्रत करने वाली स्त्री पतिव्रता है और न करने वाली व्याभिचारिणी? उनके पास ऐसा कौन-सा पैरामीटर है कि जिससे वे यह तय करते हैं कि यदि फलां स्त्री मंदिर नहीं जाती, तो जरुर पब जाती होगी? महेंदी नहीं लगाती तो, जरुर कमर के नीचे या छाती पर सिजलिंग टैटू खुदवाती होगी। सिंदुर नहीं लगाती तो जरुर एक्स्ट्रा मैराइटल होगा। शर्म आनी चाहिए ऐसी सोच रखने वाले 'सज्जनों को'।
            

 

 
     


 

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