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             पराया धन

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            पितृसत्तात्मक समाज में नारी अपने अस्तित्व के लिए सदैव संघर्षरत रही है। नारी को जन्म लेने के लिए भी और जन्म के बाद भी संघर्ष करना पड़ता है। बचपन से जवानी तक ही नहीं बल्कि बुढ़ापे में भी पुरुष के अधीन रहकर अपने अस्तित्व के लिए लड़ना पड़ता है।

माँ-बाप बड़े ही इत्मीनान से कहते हैं कि हम बेटा-बेटी में कोई अंतर नहीं मानते। दोनों को एक समान स्नेह देते हैं। बच्चे तो माँ-बाप की आँखों के तारे होते हैं, भले ही वो लड़का हो या लड़की। जब बच्चा रात को बिस्तर गिला कर देता है तो माँ हमेशा उसे सूखे में सुला स्वयं गीले में सोती है व बच्चे को भूख लगती है तो माँ के सीने से स्वयं दूध की धारा बहने लगती है। यदि बच्चा बीमार पड़ जाए तो बाप कर्ज लेकर भी बच्चों का इलाज करवाता है। जब बच्चे हंसते हैं, तो माँ-बाप हंसते हैं, जब बच्चे रोते हैं तो माँ-बाप रोतें हैं। माँ-बाप के लिए संतान जान से भी प्रिय होती है। भले ही संतान बेटी के रूप में हो या बेटे के रूप में।

उपरोक्त तथ्य में सच्चाई है लेकिन फिर भी सामाजिक माहौल अनदेखे दबाव में या पुरुष प्रधान मानसिकता के प्रभाव के चलते बेटे को बेटी से अधिक अहमियत दी जाती है तथा बेटे को बेटी से ज्यादा सहुलियतें, ज्यादा आजादी दी जाती है। बेटे को मेरा दुलारा, मेरा प्यारा, मेरे बुढ़ापे का सहारा कहकर पुकारा जाता है। वहीं बेटी को मेरी लाड़ली के साथ-साथ पराया धन, पराई अमानत कह उसे बचपन से ही अहसास करवाना शुरू कर दिया जाता है कि बेटी हमारी नहीं, किसी और का धन है, किसी और की अमानत है। बेचारी लाडली अपने लिए, अपने ही माँ-बाप के मुख से पराया शब्द सुन दुखी हो जाती है। अपने ही मां-बाप के घर में भी परायापन की भावना लिए जीती है। वह देखती है कि भईया को ढेर सारा घी, दूध, मेवे दिए जाते हैं और उसे पेटभर खाने से भी रोका जाता है। भईया को कहीं भी जाने की आजादी है और उससे गली में सहेली के घर जाने पर भी पूछताछ, भईया की हर बात को मानना और उसे बेटी होने की दुहाई देकर संयम बरतने की नसीहत, भईया को घर का सामान इधर-उधर बिखेरने पर भी न डाटना और उसे घर की सफाई न करने पर भी मां की डांट। बाल मन में यह बात घर कर जाती है कि यह घर मेरा नहीं, मैं यहाँ पराई हूँ, किसी की अमानत हूँ, यह घर तो भईया का है।

ऐसी भावनाएँ मन में लिए लड़की बचपन से यौवन की ओर बढ़ने लगती है। किशोर अवस्था में ही लड़की के ऊपर बंदिशें लगनी शुरू हो जाती है और यौवनावस्था में पहुँचते-पहुँचते माँ पराया धन (बेटी) को ऊँच-नीच समझाते हुई कहती है कि तू अब बड़ी हो गई है। बचपना छोड़, कहे अनुसार सारे काम सीख ले क्योंकि तुझे पराए घर जाना है, वहाँ तुझे कौन सिखाएगा।

बेचारी लड़की पुनः सोचने पर मजबूर हो जाती है, आखिर मैं कौन हूं, मेरा अस्तित्व क्या है, मेरा घर कौन सा है। बचपन से ही माँ मुझे पराया धन कहती रही और आज बड़ी होने पर मुझे पराए घर जाने को कहती है। आखिर मेरा अस्तित्व क्या है? क्या नारी का खुद का कोई वजूद नहीं? शादी से पहले बाप के नाम से जानी जाती रही हूं और शादी के बाद पति के नाम से जानी जाऊँगी। मेरी पहचान कब बनेगी? स्नेह के लिए तरसती स्नेह व त्याग की मूर्ति बेचारी नारी के पास कोई जबाव नहीं........। शायद नारी होने का अर्थ है, पूरा जीवन सघर्ष करते हुए बिताना, कभी अपनों के लिए तो कभी अपने अस्तित्व के लिए।


            

 

 
     


 

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