Set as Homepage | Add to favorites



 

     बेटी क्यों कहलाए बेटा?

.
 

                
           तारीफ सुनना किसे पसन्द नहीं...? सभी को अपनी तारीफ सुनना अच्छा लगता है। यदि कोई व्यक्ति आपकी तुलना किसी बड़े व्यक्ति के साथ करता है, तो बड़ी खुशी मिलती है। आप अपनी तुलना उस व्यक्ति विशेष से करने लगते हैं। लेकिन कई बार कुछ लोग आपकी तुलना उस व्यक्ति से करने लगते हैं, जो या तो आपके बराबर की हैसियत का है, या आपसे छोटे दर्जे का है। जबकि तारीफ करने वाले व्यक्ति के नजरिये में वह व्यक्ति विशेष आपसे ऊँचें व्यक्तित्व का है, या यूं कहें तारीफ करने वाले व्यक्ति को आपके महान्‌ व्यक्तित्व के बारे में पूर्ण जानकारी न होने की वजह से आपकी तुलना सही नहीं कर पा रहा, तो हो सकता है, आपको तारीफ करने वाले की अज्ञानता पर हँसी आए या फिर उसकी मूर्खता पर गुस्सा।

एक शाम मैं वर्मा जी के घर बैठा था। उन्होंने पुकारा-'बेटा! इधर आना।' मैं चौंका! उस दम्पति की संतानों में दो बेटियाँ ही थीं। उस 'बेटे' के मेरे सामने आने तक मैंने मान लिया था कि कोई और लडक़ा होगा, जिसे उन्होंने मेरे सामने बुलाया था। पर थोड़ी देर में ही हमारे बीच एक पन्द्रह -सोलह वर्ष की लडक़ी आकर खड़ी हुई। वर्मा जी ने कहा- 'यह मेरी बड़ी बेटी वनिता है।' हां! वह बेटी ही थी। शायद उसके पिता ने भूल से 'बेटा' पुकार दिया था, परन्तु उन्होंने मेरे रहते चार-पांच बार उसे 'बेटा' कहकर ही आज्ञाएं दी। वर्मा जी ही क्यों आज जिसे देखो बेटी को बेटा कहकर ही पुकारता है।
मांएँ भी बेटी को बेटा कहती हैं, लेकिन आज तक किसी ने किसी को भूल से भी कभी बेटा को बेटी कहकर पुकारते नहीं सुना होगा। आखिर क्यों? समाज मनोविज्ञान तो यही कहेगा कि बेटी से बेटे का महव बड़ा है। सबके मन में पुत्र प्राप्ति की ही इच्छा रहती है। इसलिए बेटी को भी बेटा पुकारते हैं। बेटे को बेटी नहीं। लेकिन बेटी को ऐसे पुकारने वालों से जरा सवाल करिए- आपने बेटी को बेटा क्यों कहा। अव्वल तो वे इस प्रश्न का जवाब नहीं दे पाएँगे, क्योंकि यह भूल उनकी सोची समझी भूल नहीं है। उनके अवचेतन मन में ही बेटे का महत्व बैठा हुआ है। इसलिए अब वे बेटी का महत्व दर्शाते हुए उसे नई पहचान देते हैं। बेटा होने की पहचान, पर उनका मनोविश्लेषण करें , तो उन्होंने बेटी से बेटे का ऊंचा पद स्वीकार कर रखा है। बेटी को भी बेटा कहकर पुकारने के पीछे तो यही भाव है।

हम आज बेटा-बेटी के बीच बराबरी के प्रयासों की उद्घोषणा करते रहते हैं। दरअसल यह गलत सोच है। बेटा-बेटी बराबर क्यों हों? बेटा, बेटा है, बेटी, बेटी। दोनों में अन्तर ही अन्तर है। ईश्वर की रचना बेटा-बेटी के पीछे विशेष उद्देश्य है। पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर भी मात्र बराबरी का हक और अवसर नहीं, वरन्‌ बेटियों को विशेष अवसर मिलना चाहिए। उन्हें सम्मान मिलना चाहिए। परिवार और समाज के लिए बेटियां विशेष भूमिका निभाती हैं। फिर उन्हें विशेष सुरक्षा और सम्मान क्यों नहीं? तात्पर्य यह नहीं कि बेटों की अवहेलना हो। दोनों का अपना महत्व है। अपना अलग अस्तित्व। फिर बेटी को बेटा क्यों कहें ?

मात्र बेटी को बेटा कह देने से उन्हें उनका हक और उचित सम्मान नहीं मिलेगा। माँ-बाप की मानसिकता में परिवर्तन लाना होगा। घर में दोनों के पालन पोषण में एकरूपता लानी होगी। अधिकांश घरों में आज भी लड़कियों से सारा काम करवाया जाता है। पढऩे वाली बेटियाँ भी काम करती हैं। बेटा नहीं। इसकी वजह यह है कि हमारे मन में भेदभाव बरकरार है। दरअसल कई पीढिय़ों से हम बेटी को दोयम दर्जे की संतान मानते रहे हैं। तदानुकुल हमारे मन पर दोनों के प्रति भिन्न दृष्टिकोण ने व्यवहार को भी परिवर्तित किया। अब अपनी पुरानी भूल सुधारने में हम जल्दीबाजी कर रहे हैं। बेटी को बराबर के व्यवहार और अवसर नहीं दे रहे, या दे भी रहे हैं तो सबसे पहले उसे 'बेटा' संबोधन दे दिया। हो गई छुट्टी। कभी-कभी समझदार और संवेदनशील बेटियों पर इस संबोधन का उल्टा असर होता है। वे सोचती हैं क्या हमारा बेटी होना काफी नहीं? बहुत लोग कहेंगे- 'बोलने में क्या जाता है। बेटा कहो या बेटी, रहेगी तो वह बेटी ही।' बेटी को बेटा बोलना गलत है। बेटी के प्रति हमारी भिन्न मानसिकता का द्योतक है। समाज बहुत तेजी से बदल रहा है। पुरानी पम्पराएँ समाप्त हो रही हैं। नई पम्पराएं डाली जा रही हैं। स्त्री जीवन में भी तेजी से बदलाव आ रहा है। ऐसे मोड़ पर उसे उसके नाम से न पुकारना, उसकी स्थिति को नकारना, उसके साथ एक बड़ा अत्याचार होगा। बेटा-बेटी के बीच भेद मिटाने का हमारा प्रयास धरे का धरा रह जाएगा। बेटी को भी बेटा मान लेने पर अनर्थ हो सकता है। वह तो बेटी है। विशेष है। समाज विकास के इस संक्रमण काल में बेटी के वजूद को स्वीकारना है। उसे उसका हक दिलाना है।

यह कार्य मात्र कानूनों में समानता लाकर नहीं होगा। छोटी-छोटी बातों से ही बनती है बड़ी बात। बेटियों को पढ़ा-लिखा कर बड़ी-छोटी नौकरी और व्यापार में लगाने का मतलब भी उसे बेटा बनाना नहीं है। वह जीवन के हर क्षेत्र में पदार्पण करे, परन्तु अपने बेटी होने की विशेषताओं के साथ, तभी समाज के लिए भी हितकर होगा। आज हम बेटियों को भी इंजीनियर, डॉक्टर, कंप्यूटर, इंजीनियर, साइंटिस्ट बना रहे हैं। अच्छी बात है। यह ध्यान रहे कि वह बेटी है, उसकी अपनी विशेषताएँ हैं। उसकी प्राकृञ्तिक, पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियां हैं। हमारी बेटियों के लिए सभी द्वार खुलें, पर आंगन भी बरकरार रहे। वह अपने घर रूपी बगिया की फूल रहे। वह बेटी है, उसे हर पल स्मरण रहे। समय रहते सचेत होना चाहिए। हमारी दृष्टि साफ होनी चाहिए। हमें अपनी सोच के दलदल से शीघ्र निकलना होगा। जाने अनजाने जिह्वा की हमारी इस भूल का एक और दुष्परिणाम हो सकता है। बेटों द्वारा अपनी स्थिति खोजने की पहल। जब बेटी ही बेटा है तो वे क्या हैं?

 

 
     


 

Copyright © 2008-15 Haryana21.com All rights reserved.