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      हाऊसवाइफ नहीं होमेमकर बनें

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        पुरुष व महिला दोनों ही परिवार की सशक्त धुरी हैं। जिससे परिवार व समाज का निर्माण होता है। दोनों की समान भागीदारी होते हुए भी निर्माण कार्य में महिला की पृष्ठभूमि अग्रणी मानी जा सकती है। जिसकी गोद से समाज  का नवशिशु पल्लवित होता है। उसके विकास की अवधारणाएं नारी की गोद में ही समायी हैं। फिर भी पुरुष प्रधान व्यवस्था से ग्रसित नारी इस तरह की महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि से आज अलग-थलग खड़ी पराधीन समझी जा रही है। देशमें आज विधायक, सांसद, पंच, सरपंच, मुखिया आदि पदों पर चयनित होकर भी नारी का स्वतन्त्र व्यक्तित्व उभरता नजर नहीं आ रहा है। नारी के ऊपर पुरुष वर्ग के बढ़ते प्रभाव को इस दिशामें नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। जिसके कारण लोकतंत्रमें नारी की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लगता जा रहा है।
 
नारी की प्रासंगिकता सबसे ज्यादा मुखर हो सकती है, बशर्ते वह अपने अन्दर छिपी ताकत को सही मायने में उजागर कर आने वाली हर चुनौती का सामना कर सके। नारी सशक्तिकरण के तहत इस तरह की प्रबल भावना को उजागर करने का प्रयास भी किया गया है। आज नारी वर्गमें जागरुकता तो आई है, शिक्षा व सेवा के क्षेत्र में इनके बढ़ते कदम को नकारा नहीं जा सकता। इनकी निष्पक्ष भावना भी उभर कर सामने आ रही है। परन्तु इस तरह की भूमिका केवल शहर तक ही सिमटकर रह गयी है। गांव आज भी उपेक्षित हैं। जहां नारी की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लगा हुआ है। नारी अबला नहीं सबला की भूमिका में उतरते हुए अपनी निर्णायक की भूमिका निभा सकती है। नारी पुरुष से ज्यादा निर्णायक एवं निर्भय भूमिका में अपने आपको उतार सकती है। बशर्ते वह अपने आपमें छिपी वास्तविक ताकत को पहचानने एवं स्वतंत्र रुप से अपनी पहचान बनाने का प्रयास करे।

यह भी सच है कि भारतीय महिलाओं की स्थितिमें समरूपता नहीं है। कम से कम तीन स्तर तो स्पष्ट ही देखे जा सकते हैं। महानगरों और बड़े-बड़े नगरोंमें रहने वाली शिक्षित, आर्थिक रुप से स्वतंत्र, विभिन्न क्षेत्रों में ऊँचे पदों पर काम करने वाली और आधुनिक चेतना से संपन्न महिलाओं का एक वर्ग है। इस वर्ग की महिलाओं ने लगभग पुरुष वर्चस्व को हर स्तर पर चुनौती दी है। ये संख्या में भले ही कम हों,किन्तु इन्होंने जो सम्मानजनक स्थिति प्राप्त की है,वह अत्यंत उल्लेखनीय है। इनकी अगली भूमिका जेंडर समानता के सिद्धांतवत्ता की होनी चाहिए। इन्हें यह भी देखना चाहिए कि आजादी का अर्थ केवल देह की आजादी तक सीमित न हो जाए, जिसे बाजार की ताकतें अपने हितमें भुना रही हैं। विज्ञापनों की चकाचौंध भरी दुनियामें पुनः स्त्री को मुकम्मल इंसान से वस्तु या कमोडिटी में तब्दील कर दिया गया है। इसके विरूद्ध उन्हें आवाज उठानी चाहिए और माहौल बनाना चाहिए।

दूसरा वर्ग छोटे नगरों-कस्बों में रहने वाली उन महिलाओं का है,जो शिक्षित हैं,आर्थिक स्वतंत्रता की दिशामें जिनके कदम निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। इसके बावजूद वे अभी तक अपनी रुढिग़त संस्कारों से बंधी, पुरुष वर्चस्व को ढोती, अपने मूल अधिकारों से पूर्णतयः वंचित हैं। एक तरह से ये दो-दो मोर्चों पर लड़ रही हैं। ऑफिस और घर दोनों युद्ध के मोर्चे बन गए हैं। इन्हें एक हद तक आर्थिक आजादी तो मिली है,लेकिन बराबरी और सम्मान अभी तक दूर की कौड़ी है। हाऊसवाइफ को पुरुष वर्चस्व हाऊसकीपर से ज्यादा नहीं बनता। वे उनके लिए घर और बच्चों के देखभाल करने वाली एक नाचीज से ज्यादा हैसियत नहीं रखती। घर की देखभाल पर व्यय होने वाले उनके श्रम की गणना नहीं की जाती। अगर वितीय इंडेक्स पर घरेलू श्रम को भी रखा जाए,तो समझमें आएगा कि उनके श्रम की आर्थिक महत्व क्या है? महिलाओं को अपनी अस्स्मिता का अहसास स्वयं ही करना होगा। स्वालंबन और स्वाभिमान की लड़ाई एक-दूसरे से जुड़ी हुई है। उन्हें स्वयं भी अपने को हाऊसवाइफ नहीं होमेमकर बनना होगा,जो यथार्थमें वे हैं। नारी एक होममेकर होकर भी हाऊसवाइफ बनकर रह गई तभी तो वह आज भी कोई फॉर्म भरती है तो उसमें अपने व्यवसाय वाले कॉलममें हाऊसवाइफ ही भरती है। एक बात यह भी समझ लेनी होगी कि आर्थिक संपन्नता और आधुनिक जीवनशैली,जेंडर सबनता की गारंटी नहीं हो सकती। हरियाणा और पंजाब इसके ज्वलंत उदाहरण हैं,जहाँ की आर्थिक प्रगति पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं है,किन्तु स्त्री-पुरुष के अनुपातमें ये दोनों राज्य पूरे देशमें पीछडे़ हुए हैं। जेंडर सम्मानता और सम्मान की लड़ाई लड़े बिना सचेत हुए बिना कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता।

एक बात और उल्लेखनीय है कि अस्सी के दशकमें महिला, बच्चों, आदिवासी आदि के सवालों को लेकर संगठन बने। संघर्ष शुरू हुए,किन्तु देखते-देखते ये संगठन स्वयंसेवी संस्थाओंमें परिवर्तित हो गए। जिनका एकबत्र उद्देश्य फंड प्राप्त करना और खर्चना हो गया। आज इस बात पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है। आर्थिक स्वालंबन जरुरी है, लेकिन विचारहीन विकास हमें कहीं नहीं पहुँचाता। उसी प्रकार उद्देश्यविहीन संगठन-संस्थाएं किसी भी उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर सकती। हमारे देशमें सबसे बड़ी संख्या धूर-गांव-देहातोंमें रहने वाली निम्न वर्ग की अशिक्षित स्त्रियों की है जो मेहनत-मजदूरी करके घर के आर्थिक पक्षमें बराबर की हिस्सेदारी के बवजूद दयनीय स्थितिमें जीने को मजबूर हैं। इन्हें अथक परिश्रम के बवजूद भरपेट पौष्टिक भोजन नसीब नहीं होता। इनके लिए भी आर्थिक स्वालंबन प्रस्थान बिंदू साबित हो सकता है। स्वयं सहायता समूह इस उद्देश्य की पूर्तिमें सहायक हो सकते हैं। इनकी आय, सम्मान में भी वृद्धि का कारण बनेगी। स्वास्थ्य के प्रति, शिक्षा के प्रति जागरूकता, इनके कदम सही दिशामें बढ़ा सकती है। महिलाओं को निर्णय लेने का अधिकार और संपत्ति में बराबरी का हक ही ग्रामीण समाज को जनतांत्रिक बना सकता है।

स्थानीय निकायोंमें महिलाओं को प्राप्त होने वाले आरक्षण ने उनके सशक्तिकरण की दिशामें सार्थक पहल की है। हरियाणा और बिहार जैसे राज्योंमें इस आरक्षण का असर दिखने लगा है। पंचायत जैसे चुनावोंमें महिलाओं की हिस्सेदारी ने निर्वाचन की प्रक्रिया को हिंसायुक्त बनाने मे बड़ी भूमिका निभाई है।

केरल प्रांत को कई दिशाओंमें मिली सफलता के विश्लेषण से यह बात सामने आई है कि वहां के समाज में नायर बीस प्रतिशत है। वे आज भी मातृवंशी उत्तराधिकार की परंपरा से जुड़े हैं ,जिसने वहां स्त्री-सशक्तिकरणमें महत भूमिका निभाई है। अगर हमारे देश को आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभारना है तो इसकी आधी आबदी की अनदेखी नहीं कीs जा सकती। दूसरी ओर सामाजिक संस्थाओं का जनतंत्रीकरण ही विश्र्व के सबसे बड़े जनतंत्र की राजनीतिक संस्थाओं को भी सशक्त करेगा।      
           

 

 
     


 

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