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करीब तेरह वर्ष पूर्व वर्तमान राज्यसभा सदस्य हेमामालिनी की एक
फिल्म इंदिरा आई थी। नायिका प्रधान इस फिल्म में किसी बेटे की तरह
हेमा पूरे दायित्वों का निर्वाह करती हैं। आखिरी दृश्य में पिता की
मृत्यु पर मुखाग्नि हेमामालिनी देती हैं। इस दौरान सामाजिक विरोध
होता है। लेकिन इसको वह खारिज कर एक सवाल पूछती है कि एक बेटी
अंतिम संस्कार
क्यों नहीं कर सकती ? अंतिम संस्कार औरत नहीं कर सकती,
यह परम्पराा मौजूदा सदी में अव्यावहारिक परंपरा मानी जा सकती है।
भारतीय संस्कृति में किसी की मौत होने पर उसको मुखाग्नि मृतक का
बेटा/भाई/ भतीजा/पति या पिता ही देता है। दूसरे
लफ्जों में आमतौर पर
पुरुष वर्ग ही इसे निभाता है। यह पुरुषप्रधान व्यवस्था का उदाहरण
भी है और कहीं न कहीं नारी को कमजोर होने का अहसास कराने वाली
परंपरा भी।
बीते एक दशक में इस व्यवस्था को चुनौती देने/व्यावहारिक बनाने वाली
दर्जनों नजीरें इसी भारतीय परंपरागत व्यवस्था में सामने दीखीं।
सामाजिक, जातीय परंपरा
के पक्षधरों के शुरुआती विरोध
के बावजूद नारी ने अपने प्रियजन की चिता को मुखाग्नि दी और बाद में
सराहना का पात्र भी बनी।
एक माँ-बेटी, बहन-पत्नी तारणहार बने या न बनाई जाए
इसके पीछे
तर्क-वितर्क हो सकते हैं। लेकिन मध्यप्रदेश
के इंदौर शहर की
गुजराती वाणिक मीणा समाज
के सक्रियि दम्पति कृषणदास गुप्ता का
उदाहरण लें। संतानहीन
कृषणदास गुप्ता चल बसे। करीब तेरह बरस
पहले हुई इस घटना में उनकी पत्नी ने बाकायदा हंडी उठाई, अपने पति
को मुखाग्नि दी और कपालक्रिया की। परिवहन निगम
के सेवानिववत्त कर्मचारी छः पुत्रियों
के पिता श्री चतुर्वेदी का निधन हुआ तो
बेटी शमा के सामने भी यही यक्ष-प्रश्न था कि मुखाग्नि कौन देगा?
भतीजे, भानजों का इंतजार करते निढाल हो रही शमा ने यह धर्म निभाया।
अब ऐसी खबरें सनसनी बनने की बजाए स्वीकारोक्ति बननी चाहिए। देशभर
में ऐसी घटनाएँ चुनौती दे रही हैं। ऐसा नहीं है कि ये पिछले दशक से
ही शुरू हुआ हो। लगभग पचास वर्ष पूर्व हरियाणा
के हिसार जिला
के एक गांव के एक युवक रामकेश का साला अपनी माँ को बहुत बुरी
तरह प्रताडि़त करता था, जिससे रामकेश की पत्नी व रामकेश को
दुःख होता था। एक दिन रामकेश अपनी पत्नी
के साथ ससुराल गया हुआ
था, तो वहाँ अपनी सास की दुर्दशा देख, उसे अपने साथ अपने गांव ले
आया। अपनी माँ की भांति उसकी भी सेवा की। रामकेश की सास अपनी
बेटी के घर लगभग दस साल तक जीवित रही। इस दौरान कभी भी रामकेश
का साला अपनी माँ या बहन से मिलने नहीं आया। सास का अंतिम संस्कार
रामकेश ने स्वयं अपने हाथों से किया। इस बात पर उस समय तारीफ भी
मिली व हंगामा भी हुआ। उधर, भगवान की बिन आवाज की लाठी
उसके साले
पर ऐसी पड़ी, कि कुञे
के काटने से रैबिज नामक बीमारी का शिकार
होने पर कुञे की भांति भौंकते-भौंकते मर गया।
यहाँ सवाल उठता है कि इसे सनसनी, परंपरा का विरोध या फिर सामाजिक
नियमों-कायदों का उल्लंघन
क्यों मानें? जहाँ संतानहीनता या
पुत्रियाँ ही हों, वहाँ पुरुष नातेदारों की तलाश
क्यों की जाए? यह
ज्यादा बेहतर होगा कि नारी जगत का नातेदार इस परंपरा का वाहक बने।
इसे माना ही जाएगा।
बदलते परिदृश्य में इस प्रथा पर किसी तरह का बंधन नहीं होना चाहिए।
हिन्दू परंपरा में बेटे द्वारा दी गई मुखाग्नि महत्वपूर्ण मानी
जाती है। जहाँ इसे मृतक की आत्मा की मुक्तिञ् से जोड़ा जाता है।
वहीं बेटे के एक पुण्य कर्म से भी। अब सवाल बनता
है कि क्या इस
पुण्य की हकदार बेटी नहीं बन सकती? रिश्ते में आत्मीयता का पैमाना
नहीं होता है।
दरअसल समाज नारी-मन को कोमल मानते हुए श्मशानघाट पर ले जाना ही
उचित नहीं समझता है, परंतु यह तस्वीर भी बदली है। परिस्थितिवश नारी
अपने प्रियजनों
के आखिरी दर्शन
के लिए मरघट पहुँचने लगी हैं।
वैसे सार्वजनिक तौर पर या ऊँचे स्तर पर अंतिम संस्कार
के मौके पर औरतों की मौजूदगी रहने लगी है। मसलन स्व. इंदिरा गाँधी या राजीव
गाँधी के अंतिम संस्कार जैसे उदाहरण अनेक हैं। वास्तविकता यही है
कि अंतिम संस्कार, जो एक धार्मिक
मिथ्या भी है, अगर कोई बेटी या
पत्नी करती है तो इस पर
आपत्ति की जगह प्रोहत्साहन मिलना चाहिए। इसे
व्यावहारिक बनाएं और मानसिकता बदलें तभी परिवर्तन प्रभावी दिखेगा।
अब जब औरत ने दहलीज लाँघ ली है। वह पाताल से अंतरिक्ष तक का फासला
नाप चुकी है तो फिर एक सामान्य बात का विरोध
क्यों? क्या नासा ने
कल्पना चावला को अंतरिक्ष में ले जाते वक्तञ् सोचा कि यह औरतों का
काम नहीं, औरतें नाजुक दिल होती हैं? समय
के साथ बहुत-सी
मान्यताएँ बदली हैं, वैसे ही यह भी बदल सकती है।
कानूनी अधिकारों में संपत्ति की
उत्तराधिकारी बेटी बनी। अब यह भी
धीरे-धीरे हो रहा है कि अंतिम संस्कार
के पुण्य कर्म की भागीदार
नारी बने। वह माँ-बाप, भाई-पति या परिवार को सहारा दे रही है।
करोड़ों उदाहरण देशभर में और दर्जनों आपको अपने घर
के आसपास
मिलेंगे। हर क्षेत्र में तरक्की
के नए आयाम नारी जगत ने रचे और
रच रही हैं।
वेदपाठ कराती नारी इसी देश में है। धार्मिक ग्रंथों में नारी-सम्मान
दर्शाया गया है। हरिद्वार में शंकराचार्य की तर्ज पर एक महिला
के लिए पार्वत्याचार्य का पद बनाया गया जिसकी तारीफ कम हुई, धार्मिक
अखाड़ों में विरोध खूब हुआ,
सत्ता और ताकत के बंटवारे
के मुद्दे
पर।
हर युग में कट्टरपंथी सच को सूली पर चढ़ाते रहे, सच बोलने वालों की
गर्दन काटते रहे हैं। कट्टरपंथी से कुछ कम कट्टर यानी भेड़वृत्ति
के लोग पिटी-हुई लकीर पर, पहले गुजर
चुके लोगों के पीछे बगैर
सोचे-समझे चलते हैं। और यथास्थितिवादी, सुविधा-भोगी भी हर परिवर्तन
का विरोध करते हैं, अतः प्रगतिशील वही है जो समय, काल, परिस्थिति
के नए तर्कों के अनुसार उचित परिवर्तन करे। पुरानी बात में गैर
बराबरी और अन्याय की कालिख हो तो उसे धो-पोंछकर शुद्ध करें। यही
बात आती है जब बेटियों द्वारा अपनों
के अग्नि संस्कार की बात आती
है।
बात इतनी-सी है कि जहां पुत्र न हों वहां पुरुष रिश्तेदारों का
मुंह न देखते हुए लडक़ी ही अग्नि संस्कार कर ले (यदि उसकी
व्यक्तिगत संवेदना अनुमति देती है तो)। इसे भी प्रथा नहीं बनाया
जा सकता, क्योंकि प्रथा बनते ही किसी भी बात का स्थिति अनुसार
निर्णय करने का लचीलापन समाप्त हो जाता है। न ही इसे
स्त्री-स्वातंर्त्य का झंडा लहराने वाला
फैशन बनाया जा सकता
है। बस यही कि कोई संतान अपने माता-पिता
के प्रति यह अंतिम
कर्तव्य निभाना चाहे तो सिर्फ इसलिए अड़चन नहीं आना चाहिए कि वह
लडक़ी है।
जो लोग इसी आशा में परिवार नियोजित नहीं करते कि पुत्र ही उनकी
आत्मा का उद्धारक है, मोक्षदायक है, तो उनसे यह अपील है कि जब वे
आत्मा को ही मानते हैं तो यह भी लगे हाथों मान लें कि लडक़ेञ् और
लडक़ी का अंतर दैहिक है। आत्मा का कोई आकृति विज्ञान नहीं है। सबकी
आत्मा बराबर है। जहां तक शास्त्रोक्त होने की बात है, वहां तो
पिछली सदियों में तो यह भी कहा गया था कि दलित और स्त्री वेद सुनें
तो उनके कानों में पिघला सीसा डाल दिया जाए! तो यह तो बदलना
ही था, क्योंकि यह अतार्किक, अनुचित और अन्यायपूर्ण था। वैसे ही वे
परミपराएं भी बदलनी चाहिए जो आज अतार्किक, अनुचित और अन्यायपूर्ण
हैं।
इंसान के दो चित्त है,
उसके चिंतन की दो धाराएं बनी, एक
वैज्ञानिक और दूसरी पारलौकिक यानि धार्मिक। मानव चंद्रमा पर पहुँच
चुका है, फिर भी ग्रहण
के बारे दो सिद्धांत हैं, एक कक्षा में
पढ़ाने के लिए और दूसरा घर पर मानने
के लिए। वही अध्यापक कक्षा
में चन्द्र ग्रहण
के वास्तविक कारणों को पढ़ाकर आता है और ग्रहण
लगने पर गंगा स्नान कर पाप धोता है।
अन्तिम संस्कार, साधारण धार्मिक अनुष्ठस्नन नहीं है, इन्सान की
मृत्यु पर होने वाले अनुष्ठस्नन में खून का रिश्ता ही नहीं,
भावनात्मक रिश्ता भी चाहिए। हमने-आपने अनेक बार देखा सुना होगा, कि
पुत्र अपने वृद्ध माँ-बाप की सेवा नहीं करता, उन्हें अपमानित करता
है, मारपीट करता है, लेकिन उन वृद्धों को कोई पडोसी दया का पात्र
मान उनकी सेवा करता है, या उस वृद्ध
दंम्पत्ति की सेवा उनके पुत्री-दामाद करते हैं, तो अन्तिम सस्कार करने का हक उस पुत्र को
नहीं, अपितू पडोसी को या पुत्री को मिलना चाहिए। संक्षेप में,
अन्तिम सस्कार का हक उसे ही मिलना चाहिए, जिसने मरने वाले
व्यक्ति
की सच्चे दिल से सेवा की हो। भले ही वो पुत्र हो, पुत्री हो या
अन्य कोई भी
व्यक्ति।
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