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      शिक्षित नारी : सशक्त नारी

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        सरकार ने महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के लिए अनेक महवपूर्ण कदम उठाए हैं, तथा नारी हित में कई कानून भी बनाए हैं, लेकिन अज्ञानतावश अधिकांश महिलाएँ उनका प्रयोग ही नहीं कर पाती। अज्ञानता को केवल शिक्षा ही दूर कर सकती है। यदि महिलाएँ शिक्षित होतीं, तो आज इनकी यह दुर्दशा नहीं होती ? अज्ञानतावश, अशिक्षित महिलाएँ अपने साथ हो रहे अन्याय को नियति मान कर चुपचाप सहन करती आ रही हैं और किसी से शिकायत भी नहीं करती। अधिकार संपन्न होते हुए भी दुःख सहकर जिन्दगी गुजारती हैं तथा सार्वजनिक तौर पर स्वयं को सुखी (?) होने का ऐलान भी करती हैं।

अशिक्षा के फलस्वरूप ऐतिहासिक रूप से महिलाओं को दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता रहा है। उन्हें सिर्फ पुरुषों से ही नहीं बल्कि जातीय संरचना में भी सबसे पीछे रखा गया है। इन परिस्थितियों में उन्हें राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से सशक्त करने की बात बेमानी लगती है, भले ही उन्हें कई कानूनी अधिकार मिल चुके हैं। महिलाओं का जब तक सामाजिक सशक्तिकरण नहीं होगा, तब तक वह अपने कानूनी अधिकारों का समुचित उपयोग नहीं कर सकेगी।

एक बार राजा त्रिशूलधर शिकार के दौरान जगंल में भटक गए, प्यास से बेहाल राजा को चक्कर आने लगे, वे वहीं गिर पड़े, उधर से गुजर रहे भामा नामक लकड़हारा ने नीम बेहोश राजा को जल पिलाया। पानी पीने से राजा को लगा, जैसे उसे नई जिन्दगी मिल गई हो। राजा त्रिशूलधर ने उस लकड़हारे से इस अहसान के बदले वर माँगने को कहा, लेकिन भोला भाला लकड़हारा भामा कुछ भी नहीं माँग पाया। तब राजा ने सोचा कि मुझे नई जिन्दगी देने वाले भामा की दरिद्रता तो अवश्य दूर होनी चाहिए। राजा त्रिशूलधर ने भामा को चन्दन वन उपहार स्वरूप भेंट किया।

कुछ बर्षों बाद राजा को भामा की याद आई। राजा त्रिशुलधर ने सोचा, अब तो भामा चन्दन की लकडियाँ बेच साहूकार बन गया होगा। राजा ने भामा को बुलाने हेतू अपना दूत उसके गांव रवाना कर दिया। दूत लकडहारा भामा को राजदरबार ले आया। भामा को पहले की भान्ति दरिद्र देख राजा त्रिशूलधर को दुःखद आश्चर्य हुआ। उसने पूछा, क्या तुमने मेरे द्वारा दिए चन्दन वन की चन्दन की लकडि़यों को काटकर नहीं बेचा? तब भामा ने कहा, महाराज ! मैं आपके चन्दन वन से ही लकडि़याँ काटकर, बेचकर अपना गुजारा कर रहा हूँ, तथा खुश होते हुए बोला-आपके वन की लकडि़यों को बेचने के लिए मुझे ज्यादा मेहनत भी नहीं करनी पड़ती। शहर में जाते ही फौरन बिक जाती हैं।

राजा त्रिशूलधर सारी स्थिति को समझ गए, कि अनपढ़ भामा को चन्दन की लकड़ी की कीमत का ज्ञान नहीं है, इसकी अज्ञानता का लोगों ने फायदा उठाते हुए चन्दन की लकड़ी को साधारण लकड़ी के दाम पर खरीदते रहे।

भामा लकड़हारे और अशिक्षित महिलाओं में ज्यादा फर्क नहीं है। जब तक लड़कियाँ पढ़ लिखकर ज्ञानवान नहीं होगीं, तब तक सरकार द्वारा दी जा रही सुविधाओं का प्रयोग नहीं कर पाएगीं, और न ही नारी हित में बनाए गए कानूनों को अपने हित में प्रयोग कर पाँएगीं।

सामाजिक सशक्तिकरण का जरिया केवल शिक्षा ही है। शिक्षा एक ऐसा कारगर हथियार है, जो सामाजिक विकास की गति को तेज करता है। समानता, स्वतंत्रता के साथ-साथ शिक्षित व्यक्ति अपने कानूनी अधिकारों का बेहतर उपयोग भी करता है और राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से सशक्त भी होता है। महिलाओं को ऐतिहासिक रूप से शिक्षा से वंचित रखने का षडयंत्र भी इसलिए किया गया कि न वे शिक्षित होंगी और न ही वह अपने अधिकारों की मांग करेंगी। यानी, उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाये रखने में सहुलियत होगी। इसी वजह से महिलाओं में शिक्षा का प्रतिशत बहुत ही कम है। हाल के वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों एवं स्वभाविक सामाजिक विकास के कारण शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ी है, जिस कारण बालिका शिक्षा को परे रखना संभव नहीं रहा है। इसके बावजूद सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से शिक्षा को किसी ने प्राथमिकता सूची में पहले पायदान पर रखकर इसके लिए विशेष प्रयास नहीं किया। कई सरकारी एवं गैर सरकारी आंकड़ें यह दर्शाते हैं कि महिला साक्षरता दर बहुत ही कम है और उनके लिए प्राथमिक स्तर पर अभी भी विषम परिस्थितियाँ है। यानी प्रारम्भिक शिक्षा के लिए जो भी प्रयास हो रहे हैं, उसमें बालिकाओं के लिए अनुकूल परिस्थितियां निर्मित करने की सोच नहीं दिखती। महिला शिक्षकों की कमी एवं बालिकाओं के लिए अलग शौचालय जैसी मूलभूत सुविधाएं तक न होने से बालिका शिक्षा पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और प्राथमिक एवं मिडिल स्तर पर बालकों की तुलना में बालिकाओं की पाठशाला छोडऩे की दर ज्यादा है। यद्यपि प्राथमिक स्तर की पूरी शिक्षा व्यवस्था में ही कई कमियाँ हैं।

प्राथमिक शिक्षा पूरी शिक्षा प्रणाली की नींव है और इसकी उपलब्धता स्थानीय स्तर पर होती है। इस वजह से बड़े अधिकारी या राजनेता प्रारम्भिक शिक्षा व्यवस्था की कमियों, जररूतों से लगातार वाकिफ नहीं होते, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए था। अतः यह जरुरी है कि प्रारंभिक शिक्षा की निगरानी एवं जररूतों के प्रति स्थानीय प्रतिनिधि अधिक सजगता रखें। चूंकि शहरों की अपेक्षा गांवों में प्राथमिक स्तर पर शिक्षा की स्थिति बदतर है, इसलिए गांवों में बेहतर शिक्षा उपलब्ध कराने और बच्चों में शिक्षा के प्रति जागरूकता लाने पर खास जोर देने की जररूत है।

73वें संविधान संशोधन के बाद पंचायती राज व्यवस्था के तहत निर्वाचित स्थानीय प्रतिनिधियों ने भी पिछले दस-पंद्रह वर्षों में शिक्षा के लिए उल्लेखनीय कार्य नहीं किया। सामान्य तौर पर ऐसा देखने में आया है कि पुरुष पंचायत प्रतिनिधियों ने निर्माण कार्यों पर जोर दिया क्योंकि इसमें शायद भ्रष्टाचार की संभावनाएं ज्यादा होती होंगी। शुरुआती दौर में महिला पंचायत प्रतिनिधियों ने भी कठपुतली की तरह पुरुषों के इशारे एवं दबाव में उनकी मर्जी के खिलाफ अलग कार्य नहीं किया। लेकिन कुछ जगहों पर महिला पंच-सरपंच मुखर तो हुई हैं पर सामाजिक मुद्दों के प्रति उनमें अभी भी उदासीनता है। इसके बावजूद महिला पंचों एवं सरपंचों से ही सामाजिक मुद्दों पर कार्य करने की अपेक्षा की जा रही है क्योंकि सामाजिक सशक्तिकरण के लिहाज से यह उनके लिए जरुरी भी है। इन विषम परिस्थितियों के बावजूद देश की कई पंचायतों में आशा की किरण दिख रही है।
 
खासतौर से शिक्षा के प्रति उनमें मुखरता आई है। अंतत महिलाओं ने इस बात को समझना शुरू कर दिया है कि उनके वास्तविक सशक्तिकरण के लिए शिक्षा एक कारगर हथियार है। शिक्षा को अपनी प्राथमिक सूची में पहले स्थान पर रखने वाली महिला सरपंचों एवं पंचों का स्पष्ट कहना है कि शिक्षा में ही गांव का विकास निहित है और सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाले जनप्रतिनिधियों को ही वास्तविक रूप से सशक्त जनप्रतिनिधि माना जा सकता है।
 

 
     


 

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