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      महिला दिवस - महिला सघंर्ष की कहानी

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        अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी के आह्वान पर, यह दिवस सबसे पहले 28 फरवरी 1909 में मनाया गया। इसके बाद यह फरवरी के आखिरी रविवार के दिन मनाया जाने लगा। 1910 में सोशलिस्ट इंटरनेशनल के कोपेनहेगन के सम्मेलन में इसे अन्तर्राष्ट्रीय दर्जा दिया गया। उस समय इसका प्रमुख ध्येय महिलाओं को वोट देने के अधिकार दिलवाना था क्योंकि, उस समय अधिकतर देशों में महिला को वोट देने का अधिकार नहीं था।

इसके बाद पूरे विश्र्व में महिलाओं को बालिग मताधिकार के हक के लिए आंदोलन शुरू हुए, लेकिन सबसे पहले 1917 में रूस ने अपने देश की महिलाओ को वोट देने के अधिकार प्रदान कर पूरे विश्र्व को चौंका दिया। वह स्त्रियों को अंतरिक्ष में भेजने वाला, हर क्षेत्र  में औरतों को समानता का अधिकार देने वाला पहला देश बन गया,जिसका प्रभाव दुनिया के हर देश के आंदोलनों पर पड़ा।

1917 में रूस की महिलाओं ने, महिला दिवस पर रोटी और कपड़े के लिये हड़ताल पर जाने का फैसला किया। यह हड़ताल भी ऐतिहासिक थी। ज़ार ने सत्ता छोड़ी, अन्तरिम सरकार ने महिलाओं को वोट देने के अधिकार दिये। उस समय रुस में जुलियन कैलेंडर चलता था और बाकी दुनिया में ग्रेगेरियन कैलेंडर। इन दोनों की तारीखों में कुछ अन्तर है। जुलियन कैलेंडर के मुताबिक 1917 की फरवरी का आखिरी रविवार 23 फरवरी को था जब की ग्रेगेरियन कैलेंडर के अनुसार उस दिन 8् मार्च थी। इस समय पूरी दुनिया में (यहां तक रूस  में भी) ग्रेगेरियन कैलेंडर चलता है। इसी लिये त्त् मार्च, महिला दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।

हिन्दुस्तान में नवजागरण काल (18 वीं से क्19 वीं सदी) ने भी कई सुधारवादी आंदोलन देखे,जो सती प्रथा की समाप्ति,विधवा विवाह, बाल विवाह पर रोक और स्त्री-शिक्षा से सम्बंधित थे। राजाराम राममोहनराय और ईश्र्वर चंद्र विद्यासागर जैसे महापुरुषों की भूमिका से तो हम सब परिचित हैं,लेकिन उस काल में बंगाल में ज्योर्तिमयी देवी, महाराष्ट्रमें तारबाबाई शिंदे और सावित्रिबाई फुले ने स्त्रियों की बराबरी और शिक्षा के हक के लिए जो आवाजबुलंद की,उसकी महत्ता अभी रेखांकित होनी बाकी है। यदि इंग्लैंड में 1792 ईस्वी में मेरी वालसटेश क्राफ्ट ने विन्डीकेशन ऑफ द राइट्स ऑफ विमेन लिखा, तो भारत में भी तारबाई शिंदे ने स्त्री-पुरुष तुलना लिखी। आजादी की लड़ाई के दौरान एक बार पुनः महिलाओ को रैलियों, धरना-प्रदर्शनों ने घर से बाहर निकलने का मौका दिया। भारत कोकिला सरोजनी नायडू और दुर्गा भाभी जैसे महान नेतृत्व में महिला आंदोलन कई कदम आगे बढ़ा। नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन विमेन तथा विमेंस इंडिया एसोसिएशन जैसे संगठनों ने जोरदार ढंग से स्त्री-शिक्षा, मताधिकार, पर्दा-प्रथा तथा व्यक्तिगत अधिकारों के मुददों को उठाया।

आजादी के 1955-1956  में डॉ. आंबेडकर ने हिन्दू विवाह अधिनियम, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम आदि कानून महिलाओ के पक्ष में पारित करवाए,जिनका देश भर में कट्टरपंथी सनातनी लोगों द्वारा विरोध हुआ, जबकि भारतीय महिला फेडरेशन जैसे संगठनों ने इनका समर्थन किया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1948में मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा की, जिसका प्रभाव हमारे संविधान पर पड़ा। 1950 में आत्मसमर्पित भारतीय संविधान का मूल अधिकार और नीति निदेशक तव वाले अध्याय पर इस प्रभाव को देखा जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने जेंडर विषमता को पूरी दुनिया से समाप्त करने की दिशा में और कई कदम उठाए,जिसमें08 मार्च 1975 को अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष और 1975 से 1985 को महिला दशक घोषित करना महवपूर्ण है। सन्‌ 1979 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने महिलाओ के खिलाफ हर तरह के उत्पीडऩ की समाप्ति के कन्वेंशन की घोषणा की, जिसके पक्षकार देशों की संख्या 128 थी। पक्षकार देशों में हमारा देश भी शामिल था। इन अन्तराष्ट्रिय गतिविधियों का प्रभाव दहेज उत्पीडऩ कानून, ब्लात्कार के विरुद्ध कठोर कानून, विशाखा निर्णय और घरेलू हिंसा कानून पर देखा जा सकता है। अस्सी के दशक में हिन्दुस्तान में महिला आंदोलन की एक नई लहर देखी गई। इस बार मुकम्मल आजादी का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण था। आज महिलाएँ हर स्तर पर बराबरी के हक और हकूक की मांग कर रही थी,जो बिल्कुल जायज था। हम लोगों ने अपने देश में जनतांत्रिक व्यवस्था स्वीकार की है। इसलिए जनतांत्रिक मूल्यों की मजबूती न केवल राजनीतिक संस्थाओं के लिए बल्कि सामाजिक संस्थाओं के लिए भी महत्वपूर्ण है। विवाह जैसे संस्था भी सामाजिक व्यवस्था के ही अंग है। ऐसा नहीं हो सकता है कि हम राजनीतिक तौर पर जनतांत्रिक मूल्यों  की बात तो करें, किन्तु सामाजिक और वैवाहिक संबंधों में वर्णवादी और सामंती मूल्यों  को कायम रखें। वर्णविहीन और जेंडर विषमताविहीन समाज में ही जनतांत्रिक मूल्य सशक्त हो सकते हैं।
 

 
     


 

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