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     गुणों से बनाए अपनी पहचान

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        प्रत्येक धर्म, समाज के ठेकेदारों ने नारी का उपयोग किया, आवश्यकतानुसार धर्म में नारी स्थान का परिवर्तन करते रहे, लेकिन प्रत्येक धर्म में नारी को महवपूर्ण स्थान प्राप्त है। मनुस्मृति के अनुसार

नारी में ईश्र्वरत्वयत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवतः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रिया:॥ (मनुस्मृति,3/56)

अर्थात्‌ ''जहाँ स्त्रियों का आदर किया जाता है, वहाँ देवता रमण करते हैं और जहाँ इनका अनादर होता है, वहाँ सब कार्य निष्फल होते हैं।'' जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता भी निवास करते हैं।

हिन्दू धर्म में ही नहीं, अपितू सभी धर्मों में नारी का विशेष महव है। इस्लाम धर्म में नारी के उचित स्थान को लेकर कुछ लोग भ्रमित हैं, जबकि इस्लाम नें नारी को समाज के विकास का स्त्रोत बताया है। पैग़मबर ईस्लाम (स) के पौत्र हजऱत इमाम सादिक (अ) ने इस संबंध में फरमाया है कि सबसे अधिक भलाई तथा अच्छाई महिलाओं के अस्तित्व से है। इस्लामी गणतन्त्र ईरान के संस्थापक इमाम खुमैनी (र) ने महिलाओं को समाज की शिक्षक तथा आगामी पीढ़ी की सफलताओं तथा विकास का स्त्रोत बताया है। उनका विचार है कि अपनी प्रशिक्षक की भूमिका के कारण महिलाओं का स्थान मूल्यवान तथा श्रेष्ठ है। इस प्रकार के दृष्टिकोण से, वो लोग या घारणाएँ जो महिलाओं को तुच्छ और उन्हें सारी बुराइयों की जड़ समझती हैं, बुद्धि तर्क तथा धार्मिक विश्वासों के विपरीत हैं, चाहे उनमें कुछ धार्मिक नेता भी सम्मिलित हों।

महिलाओं की प्रशिक्षक की भूमिका सुव्यवस्थित तथा स्पष्ट रूप में पारिवारिक संस्था के ढांचे में दिखाई देती है। इस संदर्भ में पवित्र क़ुरआन महिला की परिपूर्णता की भूमिका को उसके पति की शान्ति एवं विभूति का कारण समझता है। इस आधार पर नर तथा नारी, समाज और सामाजिक संबंधों तथा घर के अन्दर तथा घरेलू वातावरण, दोनों एक दूसरे के पूरक रूप में हैं, और कोई भी एक दूसरे से कम नहीं है। दूसरे शब्दों में भूमिकाओं के संबंध में महिला तथा पुरुष की भूमिका के विभिन्न होने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि एक महत्वपूर्ण है और दूसरा महवहीन। इस्लामी नियमों के अनुसार पारिवारिक जीवन को सत्य पर आधारित होना चाहिए और नर तथा नारी को एक दूसरे पर बिना किसी तर्क के अपने आदेश नहीं थोपने चाहिएं।

श्री स्कन्दपुराण के ब्रह्माण्ड में कहा है-
भार्या मूलं गृहस्थस्य भार्या मूलं सुखस्य च।
भार्या धर्म फलायैव भार्या संतान वृद्धये॥ (श्री स्कन्दपुराण, 7/64)

अर्थात्‌ ''गृहस्थ आश्रम का मूल भार्या है, सुख का मूल कारण भार्या है, धर्म फल की प्राप्ति तथा सन्तान वृद्धि का कारण भार्या ही है।''

नारी का महान्‌ पद माता का है, जिसके लिए वाल्मीकि ने 'रामायण' में कहा है-
''जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी''
अर्थात्‌ ''जननी और जन्म-भूमि स्वर्ग से भी बढक़र है।''
जहाँ पर पति-पत्नी ईश्वरीय आदेशों के अनुसार वैवाहिक बंधन में बंधते हैं और अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं, एक प्रेमपूर्ण परिवार की नींव रखते हैं, तो उसके दोनों सदस्य अर्थात पति एवं पत्नी सहकारिता तथा कर्तव्य के साथ रहते हैं। इस्लाम ने मूल कार्यों जैसे शिक्षा एवं प्रशिक्षण तथा परिवार में शान्ति एवं सुरक्षा की स्थापना यदि पत्नी का दायित्व रखा है, तो उसके मुकाबले पति का र्काव्य बताया है कि सुखद संबंध बनाए रखने के साथ ही वह पत्नी पर भारी अप्रचलित कार्य न थोपे तथा साथ ही एक विशेष कोमलता के साथ पतियों को आदेश देता है कि पत्नियों के साथ नेक तथा उचित व्यवहार द्वारा परिवार में न्याय की स्थापना एवं विकास करें। इस आधार पर पुरुष को जबरदस्ती कोई भी आदेश देने का अधिकार नहीं है। पारिवारिक कर्तव्यों को निभाने में उसे न्याय, प्रेम तथा क्षमा से काम लेना चाहिए। पति को चाहिए कि अपनी पत्नी की योग्यताओं तथा क्षमताओं के विकास हेतु उसे स्वतन्त्रता प्रदान करे ताकि वह भी प्रेम तथा वफ़ादारी के साथ परिवार में स्नेह तथा ममता का केंद्र बनी रहे।

महाभारत में श्री विदुर जी ने कहा है-
पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः।
स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तञस्तस्माद रक्ष्या विशेषतः॥ (महाभारत, 38/11)

अर्थात्‌ ''घर को उज्जवल करने वाली और पवित्र आचरण वाली महाभाग्यवती स्त्रियाँ पूजा (सत्कार) करने योग्य हैं, क्योंकि वे घर की लक्ष्मी कही गई हैं, अतः उनकी विशेष रूप से रक्षा करें।''
भारतीय संस्कृति में लज्जा को नारी का श्रृंगार माना गया है। वहीं पश्चिमी सभ्यत या हर वो दूसरी सभ्यताा जो महिलाओं को नग्नता के लिए प्रोत्साहित करती है, सभी महिलाओं पर घोर अत्याचार करती है। ईश्वर की दृष्टि में, जो इन्सान और सृष्टि का जन्मदाता है, पैगम्बरों तथा ईश्वरीय धर्मों की दृष्टि में, समाज में महिला हर चीज से अधिक एक इन्सान के रूप में देखी जानी चाहिए। एक ऐसा इन्सान जो अपनी सभी क्षमताओं तथा योग्यताओं के साथ, अत्यन्त आदरणीय है और समाज के विकास में जिसकी मूल व महत्वपूर्ण भूमिका है। परिवार के आत्मीय तथा प्रेमपूर्ण वातावरण में ही एक पत्नी अपने पति के लिए श्रृँगार करके उसको लुभा सकती है।

जो महिलाऐं किसी समूह या सार्वजनिक स्थानों पर अनुचित अंग प्रदर्शन करती हैं, वास्तव में वे स्वयं को एक बिकाऊ वस्तु के रुप में समाज के सम्मुख प्रस्तुत करती हैं। वो बजाए इसके कि एक योग्य सक्षम तथा लाभदायक इन्सान के रूप में समाज में पहचानी जाएँ और अपने ज्ञान, शिक्षा, वफादारी तथा गुणों व मानवीय मूल्यों के आधार पर अपनी पहचान बनाए। लेकिन पश्चिमी सभ्यता की औरतों ने केञ्वल अपने यौन आकर्षणों को ही दूसरों के सामने प्रस्तुत किया है और इस प्रकार वह मानवीय-मूल्यों से स्वयं को दूर कर लेती है।

वर्तमान सभ्यता ने महिला के सौन्दर्य तथा आकर्षण से लाभ उठाते हुए और स्वतंत्रता तथा बराबरी के नाम पर उसे अपने स्वाभाविक तथा मानवीय नियमों के मुकाबले में खड़ा कर दिया है। पश्चिमी महिला जो वेल ड़ोरेन्ट के अनुसार 19 वीं शताब्दी के आंरम्भिक काल तक मानवाधिकारों से वंचित थी, आकस्मिक रूप से लालची लोगों के हाथ लग गई। इस प्रकार समाज में महिला एक वस्तु तथा उपकरण के रूप में सामने आई है। यही कारण है कि समाज में महिला ने अपना गौरव खो दिया है। अब यह इन महिलाओं का दायित्व है कि अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को दोबारा प्राप्त करने का प्रयास करें और समाज को अनेक बुराइयों से बचा लें।

 

 
     


 

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