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सिमौन बोआ ने बड़ी ही सरल बात कही-
अपनी जमीन खुद तय करो। इतनी सरल सी लगने वाली बात का अर्थ बहुत गूढ़
है। नारी को अपने आस्तित्व की रक्षा स्वयं करनी है, अपना मूल्यांकन
स्वयं करना है। पुरुष सत्ता द्वारा बनाए गए मापदंडों के अनुसार अपना
मूल्याकंन न कर अपना मापदंड स्वयं बनाना होगा। अपना इतिहास खुद
लिखना होगा। अपनी जमीन खुद तय करनी होगी। प्राचीन काल से वर्तमान
युग तक नारी की स्थिति में अनेक बार परिवर्तन आया है। नारी का
स्थान समाज में कभी अर्श पर तो कभी फर्श पर रहा। शक्ति, श्रद्धा,
पूजा, देवी, हृदयवासिनी जैसी स्थिति से अबला, भोग्या जैसी पददलित
स्थिति से नारी को गुजरना पड़ा।
कन्या का जन्म दुर्भाग्य का सूचक और पुत्र का जन्म रत्नवर्षा की
तरह सौभाग्य का सूचक माना जाने लगा। लड़का-लड़की के बीच इतना
भेदभाव और पक्षपात चल पड़ा कि दोनों के बीच दुलार के अतिरिक्त
मुलभूत सुविधा साधनों की असाधारण न्यूनाधिकता देखी जाने लगी है।
बचपन से ही बेटी को बेटे से दोयम दर्जे पर रखा जाता है। अभिभावक जब
ऐसी अनियति का निर्वहन करे तो अन्य बाहरी लोग उनको सम्मान कैसे
प्रदान करेंगे। हीन भावना से ग्रस्त कन्या को ससुराल
पहुंचते-पहुंचते चौकीदारनी, रसोईदारनी, धोबिन, सफाईवाली के साथ-साथ
कामुकता तृप्ति की साधन सामग्री के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा
है। दूसरे दर्जे की नागरिक बनी नारी पर इस अन्याय के विरुद्ध मुँह
खोलने तक भी प्रतिबंध लग गया। रुलाने के बाद रोने का हक भी छीन लिया
गया है।
पुत्र के जन्म को रत्न प्राप्ति व पुत्री के जन्म को भाग्यफूटन जैसी
सोच का प्रभाव पूरे समाज पर पड़ा। गरीब से गरीब इंसान के घर जब बेटा
जन्म लेता है तो वह व्यक्ति उस दिन अपने आप को किसी राजा-महाराजा
से कम नहीं समझता। अपने सगे-सम्बंधियों या मित्रों को बढि़या पार्टी
देने को तत्पर रहता है। भले ही उसे घर के बर्तन तक गिरवी क्यों न
रखने पड़ें लेकिन पुत्री के जन्म की सूचना मिलते ही सेठ-साहुकार भी
इस प्रकार का व्यवहार करता है मानों उसे व्यापार में मोटा घाटा पड़
गया हो। समाज की बेटी को दुर्भाग्य सूचक और बेटे को सौभाग्य सूचक
सोच के चलते डाタटरों/नर्सों/दाइयों ने भी अपने चिकित्सीय रेट भी इसी
तरह तय किए हुए हैं। लड़का पैदा होने पर अधिक फीस व लड़की पैदा होने
पर कम फीस वसूली जाती है।
इस विषय में शहर की मशहूर मैटरनिटी होम चलाने वाली एक डॉक्टर ने
बताया कि यदि उनके मैटरनिटी होम में लड़के का जन्म होता है तो
अभिभावकों के साथ-साथ अस्पताल के स्टाफ में भी खुशी की लहर दौड़
जाती है। दादी हाथ जोड़कर धन्यवाद करती है। पिता मिठाई लेने दौड़ता
है। दादा अस्पताल के स्टाफ को इनाम बाँटता है। हमारे अस्पताल के
बिल में भी कटौती न करता हुआ खुशी-खुशी अदा कर देता है तथा
कैमेंस्टि द्वारा दिए गए दवाई के बिल का टोटल भी चैक नहीं करता और
पूरा भुगतान फौरन कर देता है और यदि लड़की पैदा हो जाए तो गहरे सदमे
जैसा माहौल हो जाता है। कंपाउडर, नर्सों के साथ भी अभिभावक ठीक से
बात नहीं करते, ऐसे लोग अस्पताल का बिल चुकाने में भी आनाकानी करते
हैं। कई बार तो बिल देते समय स्पष्ट कह भी देते हैं कि इतनी बड़ी
मुसीबत आ गई है और आप हैं कि इतना लंबा चौड़ा बिल थमा रही हैं। सो
हमें भी उनके साथ हमदर्दी से पेश आना पड़ता है। डॉक्टर
साहिबा हँसकर कहती हैं लड़की पैदा होने पर अभिभावकों का व्यवहार
हमारे साथ ऐसा होता है, मानों हमने उनके साथ पक्षपात कर दिया हो।
पुत्र के जन्म होने सगे-संबंधियों, पड़ौसियों द्वारा बधाई देने पर
उन्हें बढि़या मिठाई खिलाकर बधाई स्वीकार की जाती है। यहाँ तक कि
किसी भी लिंग से संबंध न रखने वाले हिजड़ा समुदाय भी पुत्र होने पर
ही बधाई देने जाते हैं, पुत्री होने पर नहीं। पुत्री होने पर यदि
कोई व्यक्ति खुशी मनाता है या कोई व्यक्ति किसी के यहाँ पुत्री होने
पर बधाई देता है तो उसे उचित नहीं मानते या यूँ कहें कि सामाजिक
नियमों के विरुद्ध मानते हैं, लेकिन समाज में परिवर्तन चाहवान
सज्जनों को समाज एक दिन सैल्यूट जरुर करता है। मेरे पारिवारिक
मित्र श्री विनोद बंसल एडवोकेटट के घर जब पुत्री पैदा हुई तो
उन्होंने बहुत खुशी मनाई और हिजड़ों को भी बधाई के लिए आमंत्रित
किया। श्री बंसल की इस 'गुस्ताखी' पर कुञ्छ समाज के ठेकेदारों ने
कटाक्ष भरे संवाद कर आपत्ति जताई, लेकिन समाज सुधारक इसकी परवाह नहीं
करते।
लड़का-लड़़की के लिए अलग-अलग सामाजिक आचार सहिंता लागू करना नारी
की मूल सत्ता पर गहरा आघात है। नारी के लिए पतिव्रत धर्म अनिवार्य
और पुरुष के लिए पत्निव्रत का कोई अनुबंध नहीं। औरत को अपना
सम्पुर्ण शरीर चेहरे सहित ढकने का फरमान यद्घपि पुरुष केवल
गुप्तांग ढक सर्वत्र घुमने के लिए आजाद है। विधवा पर अनेक प्रतिबंधों
के अतिरिक्त शुभकार्यों में आगे बढ़कर कार्य करने को अपशुकून मान
अपमानित किया जाता है। जबकि विदुर को उसी शुभ अवसर पर यथायोग्य
सम्मान दिया जाता है। यदि किसी स्त्री के बच्चा होने में थोड़ी देर
हो जाए तो उसे बांझ की उपाधि दे, उसके पति की दूसरी शादी की
तैयारियां शुरू कर दी जाती है। बेचारी नारी पुरुष की चिकित्सीय
जांच की मांग भी नहीं कर पाती। कामकाजी महिलाओं को भी आर्थिक दृष्टि
से अपंग बनाने की योजनाएं क्रियाविंत हैं, समाज में। ऐसे में नारी
अपनी विशेषताओं को गंवा चुकी है। वो भूलती जा रही है कि नारी ही
शक्ति है, नारी ही विद्या-बुद्धि है, नारी ही धन धान्य की देवी है।
नारी को अपनी सुप्त शक्तिञ्यों को जगाना होगा। आत्मबल द्वारा अबला
से सबला का सफर तय करना ही होगा। नारी जीवन में फैले अंधकार को
मिटाने के लिए दिया जलाना ही होगा। माना की अंधेरी रात है पर दिया
जलाना कब मना है।
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