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जीवन का उद्देश्य बड़ा
बनना होना चाहिए, न कि दूसरों को छोटा बनाना। आप बड़े बनोगे तो
स्वतः ही आपकी बराबरी करने वाला आपसे छोटा हो जाएगा। एक रेखा को
छोटा तभी किया जा सकता है, जब उसके समीप एक बड़ी रेखा खींच दी जाए।
जबकि आमतौर पर इंसान खुद को बड़ा बनाने की बजाय दूसरों को छोटा करने
का प्रयास करता रहता है, वो इंसान दूसरों को छोटा बनाने को ही अपना
ध्येय बना लेता है। दूसरों को छोटा बनाने के चक्कर में वह स्वयं
इतना छोटापन (औच्छी हरकत) कर बैठता है कि उसकी आत्मा भी क्षीण हो
जाती है। जब किसी व्यक्ति की सोच किसी को फेल करने की हो तो
परमात्मा उसे ही फेल कर देता है, लेकिन नेक-नीति से कार्य करने वाले
सदैव अव्वल दर्जे से ही पास होते हैं।
विद्वानों के मतानुसार प्राचीन कालीन समाज मातृसत्तात्मक समाज होता
था। स्त्री-पुरुष छोटे-छोटे सामाजिक समूहों/कबिलों में रहते थे।
तत्कालीन समाज में विवाह पद्घति नहीं थी। मानव होते हुए भी पाश्विक
सोच हावी थी। यौन संबंधों में रिश्तों की मर्यादा नहीं थी। काम
तृप्ति के लिए कोई सामाजिक नियम नहीं थे। धीरे-धीरे सामाजिक नियम
बनने लगे। औलाद को माँ के नाम से जाना जाने लगा। समाज में पुरुष की
अपेक्षा नारी को अधिक श्रेष्ठस्न् माना जाता था। नारी को सामाजिक,
आर्थिक व धार्मिक क्षेत्र में अधिक अधिकार प्राप्त थे।
धीरे-धीरे समय बदला, युग बदले, सामाजिक नियम व परミपराएं बदली।
मध्यकालीन युग में आते-आते नारी अर्श से फर्श तक आ गई। समाजिक सत्ता
पर नारी के अधिकारों को छीन उसे दीन-हीन-क्षीण बना पुरुष ने समाज
पर अपना अधिपय जमा लिया। नारी पर पाश्विक जुर्म होने लगे। नारी ने
इसका विरोध करना छोड़ नियति मान पुरुष की अधीनता स्वीकार कर ली।
बाल्यकाल में पिता के, युवावस्था में पति के व वृद्घावस्था में
पुत्र के अधीन रह जीवन बिताने को विवश हो गई। सम्मान के नाम पर
मात्र माँ के रूप में ही नारी को सम्मान मिलने लगा।
सामाजिक विश्लेषकों एवं विद्वानों का नारी सत्ता से पुरुष सत्ता के
हस्तांतरण व नारी दुर्दशा के लिए नारी की भावुकता, आपसी द्वेष तथा
पुरुष वर्ग के आक्रमक व्यवहार को जिम्मेदार ठहराया है। जिस प्रकार
भारतवर्ष के दो पड़ोसी राजा आपस में लड़ते रहते थे। आपसी द्वेष की
भावना रखते थे। जिसका फायदा बाहरी शक्तियों ने उठाते हुए भारत को
गुलाम बना लिया था, उसी प्रकार नारी, दूसरी नारी (सास-बहू,
भाभी-ननद) से द्वेष की भावना रखते हुए, एक-दूसरे को छोटा प्रदर्शित
करने के लिए लड़ती रही। पुरुष वर्ग ने इसका भरपूर फायदा उठाया, नारी
का महिमा मंडन कर भावुक प्रवृति नारी को अपने वश में कर धीरे-धीरे
सभी सामाजिक अधिकारों पर काबिज हो गया।
प्राकृतिक रूप से सर्वगुण संपन्न नारी समय-समय पर अपनी योग्यता से
समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती रहती है। आवश्यकता पड़ने पर
पुरुष वर्ग के लिए संकट मोचन की भूमिका भी निभाती रही है। जब-जब
नारी ने अपनी शक्ति का अहसास करवाया, तभी पुरुष वर्ग बौखला गया।
बौखलाहट में पुरुष वर्ग ने नारी पर समाजिक परम्परा नामक बेडि़या
डालनी आरंभ कर दी, लेकिन आधुनिक नारी ने संयम से सामाजिक परम्पराओं
में संतुलन बनाए रखते हुए बेडि़यों को तोडऩा आरंभ कर दिया है।
पुरुष के बराबर अपनी योग्यता की बड़ी रेखा खींच अपने आपको श्रेष्ठ
साबित कर दिया। लेकिन श्रेष्ठता अभियान में कुछ महिलाओं सहित नारी
मुक्ति के लिए संघर्षरत संस्थाओं ने जल्दबाजी करनी आरंभ कर दी। नारी
मुक्ति का श्रेय लेने हेतु अति महवाकांक्षी महिलाओं/संस्न्स्थाओं
ने पूरे पुरुष वर्ग को ही एक अपराधी के रूप में पेश कर दिया। वे
भूल गई कि यदि एक नारी माँ, बहन, बेटी, पत्नी, प्रेमिका है तो
पुरुष भी बाप, भाई, बेटा, पति, प्रेमी है। स्त्री-पुरुष परस्पर
पूरक हैं, एक-दूसरे के बगैर अधूरे हैं।
जन्म से लेकर शादी तक बेटी को दुलार से पालने वाला, बेटी की सुरक्षा
एवं संरक्षा की खातिर जान की परवाह न करने वाला, बेटी की शिक्षा व
दहेज के लिए कोल्हू के बैल की भांति दिन-रात काम करने वाला व अपना
पेट काट कर धन अर्जित कर बेटी की शादी के बाद भी जीवन पर्यन्त बेटी
की इच्छा व सामाजिक परम्परा के अनुरूप विभिन्न उपहार पहुंचाने वाला
पिता भी एक पुरुष ही है।
बहन का सच्चा हितैषी, दोस्त, हमदर्द साथी होता है, भाई। पिता की
भांति ताउम्र बहन की गृहस्थी की जरुरुतों को पूरा करता है। पिता की
मृत्यु के पश्चात् भाई की मौजूदगी पिता की कमी को खलने नहीं देती।
राखी पर अपना सब कुञ्छ न्यौछावर करने वाला, बहन के हर सुख-दुःख में
शामिल हो पूर्ण सहयोग करने वाला भाई पुरुष ही तो है।
पत्नी की सलाह पर प्रत्येक कार्य करने वाला, उसके हर सुख-दुःख को
अपनाने वाला पति, पुरुष ही तो है। पत्नी के प्रेम व विश्वास पर अपने
माता-पिता,भाई-बन्धु से अलग हो, गृहस्थी बसाने वाला पति पुरुष ही
तो है।
माँ के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाला बेटा, सारी उम्र माँ
की सेवा करने वाला, माँ द्वारा कहे हर एक शब्द को गीता का शलोक/कुरान
की आयत मानने वाला बेटा पुरुष ही तो है। माँ की मृत्यु के पश्चात
भी माँ के वचनों की कद्र करने वाला बेटा क्या पुरुष वर्ग से संबंध
नहीं रखता।
अपनी प्रेमिका की एक मुस्कुञ्राहट के लिए बडे़ से बड़ा जोखिम उठाने
वाला, उसकी प्रत्येक ख्वाहिश पूरी करने वाला प्रेमी भी पुरुष ही
है।
यदि स्त्री माँ, बहन, बेटी, पत्नी, प्रेमिका बन पुरुष का सहयोग करती
है, तो पुरुष भी बेटा, भाई, बाप, पति, प्रेमी बन अपना सर्वस्व
न्यौछावर करता हुआ अपना दायित्व निभाता है। पुरुष नारी जाति का
दुश्मन नहीं सहयोगी है। आज नारी, पुरुष के समान अपने हक की मांग
करती है, जबकि कानूनी तौर पर लगभग वह पुरुष के समान ही नहीं अपितु
विशेषांक में बेहतर स्थिति में भी है, लेकिन समाजिक तौर पर आज की
नारी को पुरुषों से ही नहीं स्वयं नारी वर्ग से भी बराबरी की
जरूञ्रत है। 'औरत, औरत की दुश्मन होती है' इस कहावत को झुठला कर
औरत को औरत का सहयोग देना होगा। साकारात्मक सोच के साथ समाज के
प्रति अपने दायित्व का निर्वहन करना होगा।
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