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कन्या भ्रूण हत्या
भारतीय समाज का एक बड़ा कलंक है। कानूनन इस पर रोक लग चुकी है, इसको
रोकने के लिए सामाजिक जागृति लाए जाने की इन दिनों बड़ी चर्चा है।
दुआ करें कि हम चर्चाएँ ही न करते रह जाएँ, इन चर्चाओं का कोई
प्रतिफल भी निकले। फिलहाल इस चर्चा में एक और बात जोडऩे की जरुरत
है, वह है गर्भपात करवाने वाली महिला के शारीरिक स्वास्थ्य पर
कुप्रभाव। इस बात पर शायद ही कोई हो-हवाल होता हो क्योंकि कई लोग
गर्भपात को खेल समझते हैं। कई तो परिवार नियोजन के आसान (?)
तरीके के रूप में भी गर्भपात को उचित समझते हैं। अपनी पत्नी
के शारीरिक स्वास्थ्य और दुःख-दर्द के प्रति लापरवाह पुरुष सहज
तरीके से परिवार नियोजन में भागीदारी
की जिम्मेदारी भी नहीं उठाते।
ठीक है, अनचाहा गर्भ हुआ तो पत्नी गर्भपात करवा लेगी, इतनी-सी तो
बात है। यह उन्हें इतनी आसान बात लगती है। लेकिन प्रक्रिया के आसान और झटपट हो जाने का मतलब यह नहीं कि यह चलते-फिरते करने वाला
कार्य हो जाए।
स्त्री के शरीर में बच्चे के विकसित होने और पैदा होने की
प्रक्रिया जितनी जादुई है, उतनी ही जटिल भी है। यह बेहद ही नाजुक
हॉरमोन संतुलन पर भी टिकी है, अतः गर्भपात का परिणाम सिर्फ इतना भर
नहीं होता कि स्त्री के शरीर से कोषाओं का एक गुच्छा निकल गया और
सब कुछ पूर्ववत्। इसके उल्ट गर्भपात के पश्चात स्त्रियों
के हारमोंस का संतुलन बदलता है, भावनात्मक हलचल भी होती है। कई
स्त्रियों को अपराध बोध होता है और कई अपने इस अपराधबोध से खुद ही
नहीं बच पाती तो अवसाद आदि में भी चली जाती
हैं, क्योंकि डिप्रेशन
भी हॉरमोन असंतुलन ही है। गर्भपात के बाद मोटापे पर काबू न रह
पाना आदि जटिलताएँ होना आम बात हैं। यदि गर्भपात बार-बार करवाया
जाए जैसे बेटा न होने तक कोख में स्त्रीलिंग पाकर, या परिवार
नियोजन के सरल (?) उपाय के तौर पर, तब तो कल्पना की जा सकती है
कि यह स्त्री के स्वास्थ्य के साथ कितना भयानक खिलवाड़ होता
होगा।
यह ठीक है कि जब गर्भपात गैरकानूनी था तब अनचाही संतान से मुक्ति के लिए लोग नीम-हकीमों का सहारा लेते
थे। अक्सर नादानी या
जबर्दस्ती से गर्भवती हुई मासूम लड़कियों पर अनगढ़ हाथों से किया
गया, कच्चा-पक्का, अवैज्ञानिक तरीके वाला गर्भपात कहर ढाता था।
गर्भपात के कानूनी होने से उससे मुक्ति मिली। गर्भपात जायज होना
ही चाहिए। पर स्त्री के स्वास्थ्य की कीमत पर इसका अति उपयोग करना
दुरुपयोग की श्रेणी में ही आएगा।
इस देश में स्त्री के स्वास्थ्य के बारे में इतनी लापरवाही बरती
जाती है कि अधिकांश स्त्रियाँ बचा-खुचा, बासी-कूसी खाती हैं और ऐसा
करने में ही बरकत समझती हैं। फल, दूध, सलाद, ताजा भोजन पर, पुरुष
का ही पहला अधिकार माना जाता है। जहां मेरा
क्या मैं तो नमक-रोटी खा
लूँगी जैसे स्त्री
वक्तव्यों पर महानता का टैग टांगा जाता हो, वहां
कोई आश्चर्य नहीं कि गर्भपात को भी एक आसान खेल समझ लिया जाता हो।
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