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      क्यों होती है गर्भ में कन्याओं की ही हत्याएँ

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             पूर्व में गर्भ में पल रहे शिशु के विषय में कोई नहीं जानता था। गर्भ को भ्रूण का अभेद किला भी कहा जाता था तथा वो वहाँ पूर्ण सुरक्षित होता था। भ्रूण के विषय में कोई कुछ भी कह पाने में असमर्थ होता था। तभी तो एक कहावत भी है कि भविष्य के गर्भ में क्या है कोई नहीं जानता। इस कहावत में गर्भ शब्द का प्रयोग इसीलिए किया गया था क्योंकि गर्भ अभेदनीय व अति गोपनीय होता था। लेकिन आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने इस अभेदनीय व अति गोपनीय रहस्य से पर्दा उठाकर प्रकृति के चलन में दखल अंदाजी कर दी है।

इस दखल अंदाजी का नतीजा यह निकला कि गर्भ में पल रही कन्याओं की निर्ममता से हत्याएं करवाई जाने लगी। जन्म से पूर्व गर्भ के लिंग की जानकारी मिलने पर कन्याओं की ही हत्याएं क्यों की जाती हैं, पुल्लिंग शिशु की क्यों नहीं? इस विषय में कई लोगों से बातें की। तरह-तरह के लोग, तरह-तरह की बातें। हर व्यक्ति ने अपनी मानसिकता के अनुसार कन्या भ्रूण हत्या का कारण बताया।

अधिकांश पुरुषों ने कन्या भ्रूण हत्या का कारण व्याभिचार, तो स्त्रियों ने इसके लिए नारी उत्पीड़न को जिम्मेदार ठहराया। जबकि स्त्री पुरुष दोनों ने वंश चलाने की मजबूरी बताया।
स्त्री-पुरुष दोनों वर्गों ने पुत्र लालसा को इसका मुख्य कारण माना है। उनका मानना है कि धार्मिक आस्थानुसार वंश को आगे पुत्र ही बढ़ाता है। यदि पुत्र न होगा तो वंश आगे नहीं चलेगा। कुल नाश का श्राप लगेगा। (जबकि ऐसा नहीं होता कृप्या इस पुस्तक में लिखित ''कुल का नाम लड़कों से चलता है....?'' अवश्य पढ़ें।)

पुरुष वर्ग ने कन्या भ्रूण हत्या का मुख्य कारण व्यभिचार को बताया। उनके अनुसार समाज में व्यभिचार बढ़ता जा रहा है। बचपन से ही बेटी की विशेष देखभाल करनी पड़ती है। छेड़छाड़, अपहरण, बलात्कार की घटनाओं से भयभीत अभिभावक चिंतित रहते हैं। चरित्र पतन व चरित्र हनन से आशंकित अभिभावक कन्या भ्रूण हत्या को मुख्य कारण मानते हैं। जैसा की हमारे समाज में लड़की वालों की अपेक्षा वर पक्ष को उच्च स्थान प्राप्त है व लडक़ी वाले, लड़के वालों को पूरा मान-सम्मान देते हैं। या यूं कहे कि वधु पक्ष को वर पक्ष की अपेक्षा दोयम दर्जा प्राप्त है। इसी के चलते कुछ लोग बेटी का बाप होने पर शर्म महसूस करते हैं। उनका मानना है कि यदि उनके यहां बेटी पैदा हुई तो उन्हें दामाद व उनके परिजनों के सामने झुकना पड़ेगा। चंद लोगों ने कन्या भ्रूण हत्या का कारण दहेज व शादी के बाद तीज, त्यौहार, छुछक इत्यादि के नाम पर ता-उम्र चलने वाले खर्चों को इसका कारण माना है।

बेटी के बाप होने की चिंता का चित्रण पंचतंत्र में एक लेखक ने कुछ इस प्रकार किया :-
                 ''पुत्रीति जाता महतीह चिंता,
                                  कस्मै प्रदेयेति महान्‌ वितर्कः।
                    दत्वा सुख‌ प्राप्स्यति वा न देती,
                                     कन्या पितृत्व खलु नाम कष्टमद्ध॥''

भावार्थ है :- एक कन्या का उत्पन्न होना भी बड़ी चिंता की बात है। पिता को बेटी की चिंता सदैव लगी रहती है। बेटी किसको दी जाएगी अर्थात किसके साथ उसका विवाह होगा, यह बड़ा वितर्क रहता है। तथा विवाह के बाद भी वह सुख पाएगी या नहीं। कन्या का पिता होना सचमुच बहुत कष्टपूर्ण होता है।

वहीं महिला वर्ग कन्या भ्रूण हत्या के लिए सामाजिक परिवेश को दोषी मानता है। उनका मानना है जिस प्रकार एक महिला होने के कारण उन्हें घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ता है, पुरुषों की वासनात्मक निगाहों व फब्तियों का शिकार होना पड़ता है। पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों को पांव की जुती समझा जाना ही कन्या भ्रूण हत्या का मुख्य कारण है। तथा इस समाज में स्त्री-पुरुष के चरित्र के मामले में 'तेरा कुछ जाना नहीं, मेरा कुछ रहना नहीं' वाली स्थिति का सामना स्त्री को करना पड़ता है। देश तो आजाद हो गया लेकिन भारतीय महिला अभी भी आजाद नहीं हुई। बचपन में मां बाप की बंदिशों में जवान हुई, लड़की, ससुराल में पति के अधीन हो जाती है, इतना ही नहीं बुढ़ापे में भी बेटे बहुओं के इच्छानुरूप कार्य करने को विवश रहती है।

यदि कोई व्यक्ति कोई ऐसा कार्य करता हो, जिससे उसे नुकसान (माली या मानसिक) हो, वह कभी नहीं चाहेगा कि उसकी औलाद उक्त कार्य करे। पिछले दिनों पंजाब के एक सरकारी विभाग के कर्मचारी ने विभागीय कार्य की अधिकता तथा अफसरों की ज्यादती के कारण आत्महत्या कर ली, उसने अपने पुत्र को संबोधित करते हुए सुसाइड नोट में लिखा था, कि वह उक्त विभाग में कभी नौकरी न करें।

इसी प्रकार महिलाएँ पुरुष प्रधान समाज की ज्यादतियों से परेशान होने के कारण नहीं चाहती कि उनकी कोख से कोई कन्या पैदा हो, और बड़ी होकर वह भी उनकी तरह पुरुषों की दुनिया में दुःख भोगे। भारतीय संस्कृति में पत्नी, पति को देवता स्वरूप मानती आई है। लेकिन पति (मर्द) अपने अहंकारवश उस पद की गरिमा की रक्षा नहीं कर पाया। पत्नी को अपना भक्त न मान, अपने पैर की जूती समझने लगा। अब समय बदल चुका है, पति पत्नी बराबरी के मुकाम पर हैं, बल्कि यह कहें कि महिलाएँ अपनी योग्यता के बल पर पुरुषों से आगे निकल चुकी हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।


 

 


 

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